Wednesday, 27 July 2016

गौड़ क्षत्रिय राजवंश

गौड़ क्षत्रिय राजवंश

गौड़ क्षत्रिय भगवान श्रीराम के छोटे भाई भरत के वंशज हैं। ये विशुद्ध सूर्यवंशी कुल के हैं। जब श्रीराम अयोध्या के सम्राट बने तब महाराज भरत को गंधार प्रदेश का स्वामी बनाया गया। महाराज भरत के दो बेटे हुये तक्ष एवं पुष्कल जिन्होंने क्रमशः प्रसिद्द नगरी तक्षशिला (सुप्रसिद्ध विश्वविधालय) एवं पुष्कलावती बसाई (जो अब पेशावर है)। एक किंवदंती के अनुसार गंधार का अपभ्रंश गौर हो गया जो आगे चलकर राजस्थान में स्थानीय भाषा के प्रभाव में आकर गौड़ हो गया। महाभारत काल में इस वंश का राजा जयद्रथ था। कालांतर में सिंहद्वित्य तथा लक्ष्मनाद्वित्य दो प्रतापी राजा हुये जिन्होंने अपना राज्य गंधार से राजस्थान तथा कुरुक्षेत्र तक विस्तृत कर लिया था। पूज्य गोपीचंद जो सम्राट विक्रमादित्य तथा भृतहरि के भांजे थे इसी वंश के थे। बाद में इस वंश के क्षत्रिय बंगाल चले गए जिसे गौड़ बंगाल कहा जाने लगा। आज भी गौड़ राजपूतों की कुल देवी महाकाली का प्राचीनतम मंदिर बंगाल में है जो अब बंगलादेश में चला गया है।

बंगाल के गौड़

बंगाल में गौड़ राजपूतों का लम्बे समय तक शासन रहा। चीनी यात्री ह्वेन्शांग के अनुसार शशांक गौड़ की राजधानी कर्ण-सुवर्ण थी जो वर्तमान में झारखण्ड के सिंहभूमि के अंतर्गत आता है। इससे पता चलता है कि गौड़ साम्राज्य बंगाल (वर्तमान बंगलादेश समेत) कामरूप (असाम) झारखण्ड सहित मगध तक विस्तृत था। गौड़ वंश के प्रभाव के कारण ही इस क्षेत्र को गौड़ बंगाल कहा जाने लगा । शशांक गौड़ इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था जो सम्राट हर्षवर्धन का समकालीन था तथा सम्पूर्ण भारत वर्ष पर शासन करने की तीव्र महत्वकांक्षा रखता था। शशांक गौड़ ने हर्षवर्धन के भाई प्रभाकरवर्धन का वध किया था। इसके बाद एक युद्ध में हर्षवर्धन ने शशांक गौड़ को पराजित किया और उसकी महत्वकांक्षाओं को बंगाल तक ही सीमित कर दिया। शशांक गौड़ के बाद इस वंश का पतन हो गया। बाद में इसी वंश के किसी क्षत्रिय ने गौड़ बंगाल में समृद्ध एवं शक्तिशाली पालवंश की नींव रखी। पाल वंश के अनेक शिलालेखों तथा अन्य दस्तावेजों से प्रमाणित होता है कि ये विशुद्ध सूर्यवंशी थे। लेकिन बोद्ध धर्म को प्रश्रय देने के कारण ब्राह्मणवादियों ने चन्द्रगुप्त तथा अशोक महान की तरह इन्हें भी शुद्र घोषित करने का प्रयास किया है। सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद भारत कई राज्यों में बंट गया और अगले 100 वर्षों तक कन्नौज पर अधिपत्य के विभिन्न क्षत्रिय राजाओं के बीच संघर्ष होता रहा क्यूंकि मगध के पतन के बाद भारतवर्ष का नया सत्ता शीर्ष कन्नौज बन चूका था तथा कन्नौज अधिपति ही देश का सम्राट कहलाता था। कन्नौज के लिए हुये इस संघर्ष में शामिल तत्कालीन भारत के प्रमुख तीन राजवंशों में गुर्जर प्रतिहार, राष्ट्रकूट के अलावा बंगाल का पाल वंश(गौड़) था। उस समय चोथी शक्ति के रूप में बादामी के चालुक्य (सोलंकी) तेजी से उभर रहे थे। पाल वंश के पतन के बाद पर्शियन आक्रान्ता बख्तियार खिलजी ने जब बंगाल पर हमले किये और उसे तहस नहस कर दिया तब गौड़ राजपूतों का बड़ी संख्या में बंगाल से राजस्थान की तरफ पलायन हुआ।

राजस्थान में गौड़ राजपूत
राजस्थान में गौड़ प्राचीन काल से ही रहते आये है, मारवाड़ क्षेत्र में एक क्षेत्र आज भी गौड़वाड़ व गौड़ाटी कहलाता है, जो कभी गौड़ राजपूतों के अधिकार क्षेत्र में रहा और वहां वे निवास करते थे। राजपूत वंशावली के अनुसार सबसे पहले सीताराम गौड़ बंगाल से राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में आये। यही से बाहरदेव व नाहरदेव दो गौड़ कन्नौज सम्राट नागभट्ट द्वितीय के पास पहुंचे। जिनको नागभट्ट ने कालपी व नार (कानपुर) क्षेत्र जागीर में दिया। इन्हीं के वंशज आज उत्तर प्रदेश के इटावा बदायूं, कन्नौज, मोरादाबाद अलीगढ में निवास करते हैं। नार क्षेत्र में आगे की पीढ़ियों में हुये वत्सराज, वामन व सूरसेन नामक गौड़ वि.स. 1206 में पुष्कर तीर्थ स्नान हेतु राजस्थान आये। उस समय दहिया राजपूत अजमेर में चैहानों के सामंत थे। जिन्होंने चैहानों से विद्रोह कर रखा था.। तत्कालीन चैहान शासक विग्रहराज तृतीय ने विद्रोह दबाने गौड़ों को भेजा। गौड़ों ने दहियाओं का विद्रोह दबा दिया तब प्रसन्न होकर चैहान शासक ने इनको केकड़ी, जूनियां, देवलिया और सरवाड़ के परगने जागीर में दिये। वत्सराज के अधिकार में केकड़ी, जूनियां, सरवाड़ व देवलिया के परगने रहे वहीं वामन के अधिकार में मोठड़ी, मारोठ परगना रहा। महान राजपूत सम्राट पृथ्वीराज चैहान के कई प्रसिद्ध गौड़ सामंत थे। जिनमें रण सिंह गौड़ तथा बुलंदशहर का राजा रणवीर सिंह गौड़ प्रमुख थे। पृथ्वीराज रासो में और भी कई गौड़ सामंतों का जिक्र आता है। चंदरबरदाई ने गौडों की प्रशंसा में लिखा है

‘‘बलहट बांका देवड़ा, करतब बांका गौड़
हाडा बांका गाढ़ में, रण बांका राठौड़।’’

वहीं कर्नल टॉड ने लिखा है कि गौड़ राजपूत अपने समय के सर्वश्रेष्ठ घुड़सवार थे। टॉड के अनुसार एक समय इस जाति का राजस्थान में अत्यंत सम्मान था, जो बाद में धीरे धीरे समाप्त हो गया। पृथ्वीराज चैहान की हार के बाद राजस्थान में गौडों की शक्ति भी क्षीण हो गयी। बाद में शाहजहाँ के समय में गोपालदास गौड़ के नेतृत्व में गौडों ने राजस्थान में फिर से एक ऊँचा मुकाम हासिल किया। शहजादा खुर्रम को मुग़ल सम्राट शाहजहाँ बनाने में गोपालदास गौड़ का विशेष योगदान था। गोपालदास गौड़ की कूटनीति तथा सही योजनाओं के कारण ही खुर्रम बादशाह जहाँगीर को अप्रिय होने के बाद भी हिंदुस्तान का सम्राट बन सका। शाहजहाँ ने भी गौड़ राजपूतों को मुगल दरबार में कछवाहों तथा राठौड़ों के समकक्ष जागीरें एवं मनसब दिये। शाहजहाँ के बाद गौड़ राजपूतों ने ओरंगजेब का साथ देना उचित ना समझा । धर्मात के युद्ध में शाहजहाँ की तरफ से जोधपुर नरेश जसवंत सिंह के नेतृत्व में गौड़ राजपूत ओरंगजेब के विरुद्ध लडे । जगभान गौड़ इसमें वीरगति को प्राप्त हुये ।

अजमेर क्षेत्र के गौड़ : वत्सराज के वंशजों में गोपालदास बूंदी चले गये, जहाँ बूंदी शासक हाडा भोज ने उसे लाखेरी की जागीर दी। गोपालदास खुर्रम के साथ दक्षिण को गया, जब खुर्रम ने थट्टा का घेरा डाला तब गोपालदास अपने 17 पुत्रों सहित युद्ध में लड़े और वीरगति को प्राप्त हुये। खुर्रम जब शाहजहाँ के नाम से बादशाह बना तब गोपालदास के पुत्र विट्ठलदास को तीन हजार जात और पन्द्रह सौ सवार का मंसब दिया। विट्ठलदास रणथंभोर व आगरा किले का दुर्गाध्यक्ष भी रहा व कंधार के युद्धों में भी भाग लिया। विट्ठलदास के एक पुत्र अर्जुन के पास अजमेर के निकट राजगढ़ जागीर में था। इसी अर्जुन के हाथों इतिहास प्रसिद्ध वीर अमरसिंह राठौड़ मारे गये थे। अर्जुन के एक भाई के पास सवाई माधोपुर के पास बौल परगना था।

मारोठ क्षेत्र के गौड़ : मारोठ व मोठड़ी के जागीरदार वामन के पौत्र मोटेराव कुचामन के व जालिम सिंह मारोठ के स्वामी बने। इस क्षेत्र में गौड़ों ने अपना प्रभाव बढाया व राज्य विस्तार किया। गौड़ों द्वारा शासित होने के कारण आज भी यह प्रदेश गौड़ाटी के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ के गौड़ों ने आमेर राज्य से भी युद्ध किया था। 16 वीं सदी की शुरुआत में रिड़मल गौड़ मारोठ के शासक हुये, जो क्षेत्र के गौड़ शासकों के पाटवी नेता थे। घाटवा के नजदीक कोलोलाव तालाब पर राव शेखा द्वारा कोलराज गौड़ की हत्या के बाद गौड़ों के निकट संबंधी राव शेखा से 12 लड़ाइयाँ हुई। बारहवीं लड़ाई पूरी गौड़ शक्ति एकत्र कर मारोठ के अनुभवी शासक रिड़मल के नेतृत्व में लड़ी गई और रिडमल को राव शेखा के पुत्र रायमल से संधि करनी पड़ी। ज्ञात हो शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक राव शेखा इसी युद्ध में, जो घाटवा युद्ध के नाम से प्रसिद्ध है, विजय के उपरांत ज्यादा घायल होने के चलते वीरगति को प्राप्त हुये थे। इस संधि में रिड़मल ने अपनी पुत्री का विवाह राव शेखा के प्रपोत्र लूणकर्ण के साथ किया और कई गांव भी दिये।

शाहजहाँ के काल में गौड़ों का शाहजहाँ से अच्छा संबंध रहा और वे दिल्ली दरबार में प्रभावशाली रहे, लेकिन औरंगजेब के काल में मारोठ के गौड़ों की स्थिति दिल्ली दरबार में कमजोर रही। इसी कमजोर स्थिति का फायदा उठाते हुये रघुनाथ सिंह मेड़तिया ने गौड़ों से मारोठ छीन लिया और औरंगजेब ने भी मारोठ का परगना रघुनाथसिंह मेड़तिया के नाम कर उसे स्वीकृति दे दी। लेकिन फिर भी पहले से अपेक्षाकृत कमजोर हो चुके गौडों को हराना रघुनाथ सिंह मेड़तिया के लिए संभव ना था । रघुनाथ सिंह मेड़तिया ने इसके लिए अपने सम्बन्धियों कछवाहों का साथ लिया तब जाकर गौडों को पराजित किया जा सका। मारोठ क्षेत्र से ही कुछ गौड़ अलवर, झुंझुनू व अन्य जगह चले गये। मारोठ से गये इन गौड़ों को मारोठिया गौड़ों के नाम से भी जाना जाता है। राजस्थान के इस क्षेत्र में कभी शासक रहे इस वीर राजपूत वंश के स्थानीय इतिहास की काफी सामग्री उपलब्ध है जिस पर और गहन शोध की आवश्यक्ता है । अपने पड़ौसी शेखावत और राठौड़ राजपूतों से इनके वैवाहिक संबंध थे, जिसकी जानकारियां भी इतिहास में प्रचुर मात्रा में मिलती है।

खापें
गौड़ राजपूत वंश की कई उपशाखाएँ (खापें) है जैसे- अजमेरा गौड़, मारोठिया गौड़, बलभद्रोत गौड़, ब्रह्म गौड़, चमर गौड़, भट्ट गौड़, गौड़हर, वैद्य गौड़, सुकेत गौड़, पिपारिया गौड़, अभेराजोत, किशनावत, चतुर्भुजोत, पथुमनोत, विबलोत, भाकरसिंहोत, भातसिंहोत, मनहरद सोत, मुरारीदासोत, लवणावत, विनयरावोत, उटाहिर, उनाय, कथेरिया, केलवाणा, खगसेनी, जरैया, तूर, दूसेना, घोराणा, उदयदासोत, नागमली, अजीतमली, बोदाना, सिलहाला आदि खापें है जो उनके निकास स्थल व पूर्वजों के नाम से प्रचलित है।

उत्तर प्रदेश में गौड़ राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र से बाहरदेव व नाहरदेव दो गौड़ भाई कन्नौज सम्राट नागभट्ट द्वितीय के पास पहुंचे। जिनको नागभट्ट ने कालपी व नार (कानपुर) क्षेत्र जागीर में दिया। इन्हीं के ही वंशज आज उत्तर प्रदेश के कानपुर, एटा, इटावा, गोरखपुर बदायूं, मोरादाबाद तथा अलीगढ में निवास करते हैं।
नार के राजा पृथ्वीदेव गौड़ का विवाह महाराज गोपीचंद राठौड़ की बहिन से हुआ था। जब पृथ्वीदेव एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुआ तो गोपीचंद राठौड़ ने अपने भांजों को बुला कर उन्हें अमेठी (कानपूर) का शासक बना दिया। राजा कान्ह्देव के ये वंशज अमेठिया गौड़ कहलाये। ये अमेठी लखनऊ, सीतापुर जिलों में बसते हैं।
बंगाल से ही एक शाखा मथुरा आयी। दिल्ली सम्राट अनंगपाल तंवर के सेनापति दो गौड़ सगे भाई सूर और घोट थे। इन्होंने वर्तमान बिलराम (मथुरा) को जीता।

पवायन रियासत 1705 में राजा उदयसिंह गौड़ ने रूहिल्ला पठानों को पराजित कर रोहिलखंड उत्तरप्रदेश (महाभारतकालीन पंचाल प्रदेश) में सबसे बड़ी राजपूत रियासत पवायन (जिला शाहजहांपुर) की स्थापना की। जिसका शासन 1947 तक कायम रहा। यहाँ के शासक को राजा की उपाधि धारण करने का अधिकार रहा है।
बुलंदशहर में बसने वाले गौडों के पूर्वज राजस्थान से आये दो भाई थे जिला बिजनोर में भी गौड़ राजपूत बसते हैं। यहाँ मुकुटसिंह शेखावत के नेतृत्व में सोमवती अमावस्य पर गंगा स्नान करने राजस्थान से आये 12 राजाओं ने जिनमें बलभद्रसिंह गौड़ और बुद्धसिंह गौड़ भी शामिल थे, हिन्दु साधुओं की रक्षा आततायी मुस्लिम नवाब फतह उल्ला खान का वध करके की। इसके बाद इन 12 राजाओं ने 84-84 गाँव आपस में बाँट लिए और वहीं पर ही शासन करने लगे।
कानपुर से गौड़ राजपूतों का एक खानदान इलाहाबाद आ गया जो ओरछा के बुंदेलों की सेवा में था। इनके एक सामंत बिहारीसिंह गौड़ ने ओरंगजेब से बगावत की और एक युद्ध में मारे गए। इलाहबाद के डॉक्टर नरेंद्रसिंह गौर उत्तर प्रदेश सरकार में शिक्षा एवं गन्ना मंत्री भी रहे।

मध्य प्रदेश में गौड़ राजपूत
मध्यप्रदेश में शेओपुर (जिला जबलपुर) गौड़ राजपूतों का एक प्रमुख ठिकाना रहा है। 1301 में अल्लाउद्दीन खिलजी ने शेओपुर पर कब्जा किया जो तब तक हमीर देव चैहान के पास था। बाद में मालवा के सुलतान का तथा शेरशाह सूरी का भी यहाँ कब्जा रहा। उसके बाद बूंदी के शासक सुरजन सिंह हाडा ने भी शेओपुर पर कब्जा किया। बाद में अकबर ने इसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। स्वतंत्र रूप से इस राज्य की स्थापना विट्ठलदास गौड़ के पुत्र अनिरुद्ध सिंह गौड़ ने की थी। इनके आमेर का कछवाहा राजपूतों से काफी निकट के और घनिष्ट सम्बन्ध रहे। अनिरुद्ध सिंह गौड़ की पुत्री का विवाह आमेर नरेश मिर्जा राजा रामसिंह से हुआ था। सवाई राजा जयसिंह का विवाह उदयसिंह गौड़ की पुत्री आनंदकंवर से हुआ था। जिससे ज्येष्ठ पुत्र शिवसिंह पैदा हुआ।
सन 1722 में जब जयपुर नरेश सवाई राजा जयसिंह जाटों का दमन करने थुड गए थे, उस समय तत्कालीन शेओपुर नरेश इन्दरसिंह गौड़ अपनी सेना सहित उनकी मदद में उपस्थित रहे। बाद में मैराथन के विरुद्ध भी इन्द्रसिंह गौड़ जय सिंह के साथ रहे। इसके अलावा भोपाल में पेशवाओं के विरुद्ध युद्ध और जोधपुर के विरुद्ध युद्ध में भी इन्दरसिंह गौड़ सवाई राजा की मदद में रहे। इस प्रकार इन्दरसिंह गौड़ ने पूरे जीवन सवाई राजा जयसिंह का साथ दिया। बाद में सिंधियों ने गौड़ों से शेओपुर को जीत लिया।
शेओपुर का 225 साल का इतिहास गवाही है, शानदार गौड़ राजपूत वास्तुकला की। नरसिंह गौड़ का महल हो, राणी महल हो या किशोरदास गौड़ की छतरियां हों, सब अपने आप में बेमिसाल हैं। आज ये शहर मध्यप्रदेश के पर्यटन का एक प्रमुख हिस्सा है।

खांडवा के गौड़
शेओपुर के अलावा खांडवा भी मध्यप्रदेश में गौडों का एक प्रमुख ठिकाना रहा है। अजमेर साम्राज्य के सामंत राजा वत्सराज (बच्छराज) गौड़ (केकड़ी-जूनियां) के वंशज गजसिंह गौड़ और उनके भाइयों ने राजस्थान से हटकर 1485 में पूर्व निमाड़ (खांडवा) में घाटाखेड़ी नमक राज्य स्थापित किया। यह गौड़ राजपूतों का एक मजबूत ठिकाना रहा। वर्तमान में खांडवा के मोहनपुर, गोरड़िया पोखर राजपुरा प्लासी आदि गाँवों में उपरोक्त ठिकाने के वंशज बसे हुये हैं।

किंवदंती है एक गौड़ राजा के प्रताप और तप के कारण ही मध्यप्रदेश की नर्मदा नदी उलटी बहती है

Rajput kuldeviyan

1. राठौड़ नागणेचिया
2. गहलोत बाणेश्वरी माता
3. कछवाहा जमवाय माता
4. दहिया कैवाय माता
5. गोहिल बाणेश्वरी माता
6. चौहान आशापूर्णा माता
7. बुन्देला अन्नपूर्णा माता
8. भारदाज शारदा माता
9. चंदेल मेंनिया माता
10. नेवतनी अम्बिका भवानी
11. शेखावत जमवाय माता
12. चुड़ासमा अम्बा भवानी माता
13. बड़गूजर कालिका(महालक्ष्मी)माँ
14. निकुम्भ कालिका माता
15. भाटी स्वांगिया माता
16. उदमतिया कालिका माता
17. उज्जेनिया कालिका माता
18. दोगाई कालिका(सोखा)माता
19. धाकर कालिका माता
20. गर्गवंश कालिका माता
21. परमार सच्चियाय माता
22. पड़िहार चामुण्डा माता
23. सोलंकी खीवज माता
24. इन्दा चामुण्डा माता
25. जेठंवा चामुण्डा माता
26. चावड़ा चामुण्डा माता
27. गोतम चामुण्डा माता
28. यादव योगेश्वरी माता
29. कौशिक योगेश्वरी माता
30. परिहार योगेश्वरी माता
31. बिलादरिया योगेश्वरी माता
32. तंवर चिलाय माता
33. हैध्य विन्ध्यवासिनि माता
34. कलचूरी विन्धावासिनि माता
35. सेंगर विन्धावासिनि माता
36. भॉसले जगदम्बा माता
37. दाहिमा दधिमति माता
38. रावत चण्डी माता
39. लोह थम्ब चण्डी माता
40. काकतिय चण्डी माता
41. लोहतमी चण्डी माता
42. कणड़वार चण्डी माता
43. केलवाडा नंदी माता
44. हुल बाण माता
45. बनाफर शारदा माता
46. झाला शक्ति माता
47. सोमवंश महालक्ष्मी माता
48. जाडेजा आशपुरा माता
49. वाघेला अम्बाजी माता
50. सिंघेल पंखनी माता
51. निशान भगवती दुर्गा माता
52. बैस कालका माता
53. गोंड़ महाकाली माता
54. देवल सुंधा माता
55. खंगार गजानन माता
56. चंद्रवंशी गायत्री माता
57. पुरु महालक्ष्मी माता
58. जादोन कैला देवी (करोली )
59. छोकर चन्डी केलावती माता
60. नाग विजवासिन माता
61. लोहतमी चण्डी माता
62. चंदोसिया दुर्गा माता
63. सरनिहा दुर्गा माता
64. सीकरवाल दुर्गा माता
65. किनवार दुर्गा माता
66. दीक्षित दुर्गा माता
67. काकन दुर्गा माता
68. तिलोर दुर्गा माता
69. विसेन दुर्गा माता
70. निमीवंश दुर्गा माता
71. निमुडी प्रभावती माता
72. नकुम वेरीनाग बाई
73. वाला गात्रद माता
74. स्वाति कालिका माता
75. राउलजी क्षेमकल्याणी माता

चौहान वंश

ब्रम्हाजी से लेकर पृथ्वीराज चौहान तक की वंशावली

वर्तमान इतिहासकारों ने इतिहास को 2000 से 4000 वर्षो में समेट लिया है विदेशी इतिहासकार अगर ये कार्य करे तो समझा जा सकता है की इसाई सम्प्रदाय की उत्पत्ति 2000 वर्ष पूर्व हुई और यहूदियो की 4500 वर्ष पूर्व अतः इससे पहले का इतिहास उन्हें नहीं ज्ञात है .. पर हमारे देश के इतिहासकार अगर ऐसा करे तो समझ से परे है जबकि हमारे पास रामायण महाभारत और पुराणों जैसे अनेकों एतिहासिक ग्रन्थ है जिनकी घटनाएं सत्य प्रमाणित भी होती जा रही है.. वैसे प्रमाणों की आवश्यकता सिर्फ भारतीयों को क्यूँ होती है विदेशियों के कथनों और ग्रंथो को हम बिना जांचे परखे क्यों सच मान लेते है..!
इस पोस्ट में हम आपको बता रहे है कई एतिहासिक ग्रंथो से जुटाई ऐसी जानकारी जिसके बाद हमें अपने अतीत में झाँकने में आसानी होगी.. हम जानते हैं कि सारी सृष्टी परमपिता ब्रम्हा से उत्पन्न हुई है लेकिन अब जानते है उनकी पूरी वंशावली..

1. परमपिता ब्रम्हा से प्रजापति दक्ष हुए.
2. दक्ष से अदिति हुए.
3. अदिति से बिस्ववान हुए.
4. बिस्ववान से मनु हुए जिनके नाम से हम लोग मानव कहलाते हैं.
5. मनु से इला हुए.
6. इला से पुरुरवा हुए जिन्होंने उर्वशी से विवाह किया.
7. पुरुरवा से आयु हुए.
8. आयु से नहुष हुए जो इन्द्र के पद पर भी आसीन हुए परन्तु सप्तर्षियों के श्राप के कारण पदच्युत हुए.
9. नहुष के बड़े पुत्र यति थे जो सन्यासी हो गए इसलिए उनके दुसरे पुत्र ययाति राजा हुए. ययाति के पुत्रों से ही समस्त वंश चले. ययाति के पांच पुत्र थे. देवयानी से यदु और तर्वासु तथा शर्मिष्ठा से दृहू, अनु, एवं पुरु. यदु से यादवों का यदुकुल चला जिसमे आगे चलकर श्रीकृष्ण ने जन्म लिया. तर्वासु से मलेछ, दृहू से भोज तथा पुरु से सबसे प्रतापी पुरुवंश चला. अनु का वंश ज्यादा नहीं चला.

10. पुरु के कौशल्या से जन्मेजय हुए.
11. जन्मेजय के अनंता से प्रचिंवान हुए.
12. प्रचिंवान के अश्म्की से संयाति हुए.
13. संयाति के वारंगी से अहंयाति हुए.
14. अहंयाति के भानुमती से सार्वभौम हुए.
15. सार्वभौम के सुनंदा से जयत्सेन हुए.
16. जयत्सेन के सुश्रवा से अवाचीन हुए.
17. अवाचीन के मर्यादा से अरिह हुए.
18. अरिह के खल्वंगी से महाभौम हुए.
19. महाभौम के शुयशा से अनुतनायी हुए.
20. अनुतनायी के कामा से अक्रोधन हुए.
21. अक्रोधन के कराम्भा से देवातिथि हुए.
22. देवातिथि के मर्यादा से अरिह हुए.
23. अरिह के सुदेवा से ऋक्ष हुए.
24. ऋक्ष के ज्वाला से मतिनार हुए.
25. मतिनार के सरस्वती से तंसु हुए.
26. तंसु के कालिंदी से इलिन हुए.
27. इलिन के राथान्तरी से दुष्यंत हुए.
28. दुष्यंत के शकुंतला से भरत हुए जिनके नाम पर हमारा देश भारतवर्ष कहलाता है.

29. भरत के सुनंदा से भमन्यु हुए.
30. भमन्यु के विजय से सुहोत्र हुए.
31. सुहोत्र के सुवर्णा से हस्ती हुए जिनके नाम पर पूरे प्रदेश का नाम हस्तिनापुर पड़ा.
32. हस्ती के यशोधरा से विकुंठन हुए.
33. विकुंठन के सुदेवा से अजमीढ़ हुए.
34. अजमीढ़ से संवरण हुए.
35. संवरण के तपती से कुरु हुए जिनके नाम से ये वंश कुरुवंश कहलाया.
36. कुरु के शुभांगी से विदुरथ हुए.
37. विदुरथ के संप्रिया से अनाश्वा हुए.
38. अनाश्वा के अमृता से परीक्षित हुए.
39. परीक्षित के सुयशा से भीमसेन हुए.
40. भीमसेन के कुमारी से प्रतिश्रावा हुए.
41. प्रतिश्रावा से प्रतीप हुए.
42. प्रतीप के सुनंदा से तीन पुत्र देवापि, बाह्लीक एवं शांतनु का जन्म हुआ. देवापि किशोरावस्था में ही सन्यासी हो गए एवं बाह्लीक युवावस्था में अपने राज्य की सीमाओं को बढ़ने में लग गए इसलिए सबसे छोटे पुत्र शांतनु को गद्दी मिली. शांतनु से भीष्म हुए जिनकी कहानी और वंशावली विचित्र है ..

43. शांतनु कि गंगा से देवव्रत हुए जो आगे चलकर भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए. भीष्म का वंश आगे नहीं बढा क्योंकि उन्होंने आजीवन ब्रम्हचारी रहने की प्रतिज्ञा कि थी. शांतनु की दूसरी पत्नी सत्यवती से चित्रांगद और विचित्रवीर्य हुए. चित्रांगद की मृत्यु युवावस्था में ही हो गयी. विचित्रवीर्य कि दो रानियाँ थी, अम्बिका और अम्बालिका. विचिचित्रवीर्य भी संतान प्राप्ति के पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो गए, लेकिन महर्षि व्यास कि कृपा से उनका वंश आगे चला.
44. विचित्रवीर्य के महर्षि व्यास की कृपा से अम्बिका से ध्रतराष्ट्र, अम्बालिका से पांडू तथा अम्बिका की दासी से विदुर का जन्म हुआ.
45. ध्रितराष्ट्र से दुर्योधन, दुहशासन, इत्यादि 100 पुत्र एवं दुशाला नमक पुत्री हुए. इनकी एक वैश्य कन्या से युयुत्सु नामक पुत्र भी हुआ जो दुर्योधन से छोटा और दुशासन से बड़ा था. इतने पुत्रों के बाद भी इनका वंश आगे नहीं चला क्योंकि इनके समूल वंश का नाश महाभारत के युद्घ में हो गया. किन्दम ऋषि के श्राप के कारण पांडू संतान उत्पत्ति में असमर्थ थे. उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को दुर्वासा ऋषि के मंत्र से संतान उत्पत्ति की आज्ञा दी. कुंती के धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्रदेव से अर्जुन हुए तथा माद्री के अश्वनीकुमारों से नकुल और सहदेव का जन्म हुआ. इन पांचो के जन्म में एक एक साल का अंतर था. जिस दिन भीम का जन्म हुआ उसी दिन दुर्योधन का भी जन्म हुआ.
46. युधिष्ठिर के द्रौपदी से प्रतिविन्ध्य एवं देविका से यौधेय हुए. भीम के द्रौपदी से सुतसोम, जलन्धरा से सवर्ग तथा हिडिम्बा से घतोत्कच हुआ. घटोत्कच का पुत्र बर्बरीक हुआ. नकुल के द्रौपदी से शतानीक एवं करेनुमती से निरमित्र हुए. सह्देव के द्रौपदी से श्रुतकर्मा तथा विजया से सुहोत्र हुए. इन चारो भाइयों के वंश नहीं चले. अर्जुन के द्रौपदी से श्रुतकीर्ति, सुभद्रा से अभिमन्यु, उलूपी से इलावान, तथा चित्रांगदा से बभ्रुवाहन हुए. इनमे से केवल अभिमन्यु का वंश आगे चला.

47. अभिमन्यु के उत्तरा से परीक्षित हुए. इन्हें ऋषि के श्रापवश तक्षक ने कटा और ये मृत्यु को प्राप्त हुए.
48. परीक्षित से जन्मेजय हुए. इन्होने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए सर्पयज्ञ करवाया जिसमे सर्पों के कई जातियां समाप्त हो गयी, लेकिन तक्षक जीवित बच गया.
49. जन्मेजय से शतानीक तथा शंकुकर्ण हुए.
50. शतानीक से अश्वामेघ्दत्त हुए.
महाभारत युद्ध के पश्चात् राजा युधिष्ठिर की 30 पीढ़ियों ने 1770 वर्ष 11 माह 10 दिन तक राज्य किया

युधिष्ठिर : 36 वर्ष
परीक्षित: 60 वर्ष
जनमेजय: 84 वर्ष
अश्वमेध : 82 वर्ष
द्वैतीयरम : 88 वर्ष
क्षत्रमाल : 81 वर्ष
चित्ररथ : 75 वर्ष
दुष्टशैल्य : 75वर्ष
उग्रसेन : 78 वर्ष
शूरसेन : 78 वर्ष
भुवनपति : 61 वर्ष
रणजीत : 65 वर्ष
श्रक्षक : 64 वर्ष
सुखदेव : 62 वर्ष
नरहरिदेव : 51 वर्ष
शुचिरथ : 42 वर्ष
शूरसेन द्वितीय : 58 वर्ष
पर्वतसेन : 55 वर्ष
मेधावी : 52 वर्ष
सोनचीर : 50 वर्ष
भीमदेव : 47 वर्ष
नरहिरदेव द्वितीय : 47 वर्ष
पूरनमाल : 44 वर्ष
कर्दवी : 44 वर्ष
अलामामिक : 50 वर्ष
उदयपाल : 38 वर्ष
दुवानमल : 40 वर्ष
दामात : 32 वर्ष
भीमपाल : 58 वर्ष
क्षेमक : 48 वर्ष

क्षेमक के प्रधानमन्त्री विश्व ने क्षेमक का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 14 पीढ़ियों ने 500 वर्ष 3 माह 17 दिन तक राज्य किया

विश्व : 17 वर्ष
पुरसेनी : 42 वर्ष
वीरसेनी : 52 वर्ष
अंगशायी : 47 वर्ष
हरिजित : 35 वर्ष
परमसेनी : 44 वर्ष
सुखपाताल : 30 वर्ष
काद्रुत : 42 वर्ष
सज्ज : 32 वर्ष
आम्रचूड़ : 27 वर्ष
अमिपाल : 22 वर्ष
दशरथ : 25 वर्ष
वीरसाल: 31 वर्ष
वीरसालसेन: 47 वर्ष
वीरसालसेन के प्रधानमन्त्री वीरमाह ने वीरसालसेन का वध करके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 445 वर्ष 5 माह 3 दिन तक राज्य किया

वीरमाह: 35 वर्ष
अजितसिंह: 27 वर्ष
सर्वदत्त: 28 वर्ष
भुवनपति: 15 वर्ष
वीरसेन: 21 वर्ष
महिपाल: 40 वर्ष
शत्रुशाल: 26 वर्ष
संघराज: 17 वर्ष
तेजपाल: 28 वर्ष
मानिकचंद: 37 वर्ष
कामसेनी: 42 वर्ष
शत्रुमर्दन: 8 वर्ष
जीवनलोक: 28 वर्ष
हरिराव: 26 वर्ष
वीरसेन द्वितीय: 35 वर्ष
आदित्यकेतु: 23 वर्ष
प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया

वीरमाह: 35 वर्ष
अजितसिंह: 27 वर्ष
सर्वदत्त: 28 वर्ष
भुवनपति: 15 वर्ष
वीरसेन: 21 वर्ष
महिपाल: 40 वर्ष
शत्रुशाल: 26 वर्ष
संघराज: 17 वर्ष
तेजपाल: 28 वर्ष
मानिकचंद: 37 वर्ष
कामसेनी: 42 वर्ष
शत्रुमर्दन: 8 वर्ष
जीवनलोक: 28 वर्ष
हरिराव: 26 वर्ष
वीरसेन द्वितीय: 35 वर्ष
आदित्यकेतु: 23 वर्ष
प्रयाग के राजा धनधर ने आदित्यकेतु का वध करके उसके राज्य को अपने अधिकार में कर लिया और उसकी 9 पीढ़ी ने 374 वर्ष 11 माह 26 दिन तक राज्य किया

धनधर : 23 वर्ष
महर्षि : 41 वर्ष
संरछि : 50 वर्ष
महायुध: 30 वर्ष
दुर्नाथ: 28 वर्ष
जीवनराज: 45 वर्ष
रुद्रसेन: 47 वर्ष
आरिलक: 52 वर्ष
राजपाल: 36 वर्ष
सामन्त महानपाल ने राजपाल का वध करके 14 वर्ष तक राज्य किया। अवन्तिका (वर्तमान उज्जैन) के विक्रमादित्य ने महानपाल का वध करके 93 वर्ष तक राज्य किया। विक्रमादित्य का वध समुद्रपाल ने किया और उसकी 16 पीढ़ियों ने 372 वर्ष 4 माह 27 दिन तक राज्य किया

समुद्रपाल: 54 वर्ष
चन्द्रपाल: 36 वर्ष
सहपाल: 11 वर्ष
देवपाल: 27 वर्ष
नरसिंहपाल: 18 वर्ष
सामपाल: 27 वर्ष
रघुपाल: 22 वर्ष
गोविन्दपाल: 27 वर्ष
अमृतपाल: 36 वर्ष
बालिपाल: 12 वर्ष
महिपाल: 13 वर्ष
हरिपाल: 14 वर्ष
सीसपाल: 11 वर्ष (कुछ ग्रंथों में सीसपाल के स्थान पर भीमपाल का उल्लेख मिलता है, सम्भव है कि उसके दो नाम रहे हों।)
मदनपाल: 17 वर्ष
कर्मपाल: 16 वर्ष
विक्रमपाल: 24 वर्ष
विक्रमपाल ने पश्चिम में स्थित राजा मालकचन्द बोहरा के राज्य पर आक्रमण कर दिया जिसमे मालकचन्द बोहरा की विजय हुई और विक्रमपाल मारा गया। मालकचन्द बोहरा की 10 पीढ़ियों ने 191 वर्ष 1 माह 16 दिन तक राज्य किया

मालकचन्द: 54 वर्ष
विक्रमचन्द: 12 वर्ष
मानकचन्द: 10 वर्ष
रामचन्द: 13 वर्ष
हरिचंद:14 वर्ष
कल्याणचन्द: 10 वर्ष
भीमचन्द: 16 वर्ष
लोवचन्द: 26 वर्ष
गोविन्दचन्द: 31 वर्ष
रानी पद्मावती: 1 वर्ष

रानी पद्मावती गोविन्दचन्द की पत्नी थीं। कोई सन्तान न होने के कारण पद्मावती ने हरिप्रेम वैरागी को सिंहासनारूढ़ किया जिसकी 4 पीढ़ियों ने 50 वर्ष 0 माह 12 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

हरिप्रेम: 7 वर्ष
गोविन्दप्रेम: 20 वर्ष
गोपालप्रेम : 15 वर्ष
महाबाहु: 6 वर्ष
महाबाहु ने सन्यास ले लिया। इस पर बंगाल के अधिसेन ने उसके राज्य पर आक्रमण कर अधिकार जमा लिया। अधिसेन की 12 पीढ़ियों ने 152 वर्ष 11 माह 2 दिन तक राज्य किया

अधिसेन: 18 वर्ष
विल्वसेन: 12 वर्ष
केशवसेन: 15 वर्ष
माधवसेन: 12 वर्ष
मयूरसेन: 20 वर्ष
भीमसेन: 5 वर्ष
कल्याणसेन: 4 वर्ष
हरिसेन: 12 वर्ष
क्षेमसेन: 8 वर्ष
नारायणसेन: 2 वर्ष
लक्ष्मीसेन: 26 वर्ष
दामोदरसेन: 11 वर्ष
दामोदरसेन ने उमराव दीपसिंह को प्रताड़ित किया तो दीपसिंह ने सेना की सहायता से दामोदरसेन का वध करके राज्य पर अधिकार कर लिया तथा उसकी 6 पीढ़ियों ने 107 वर्ष 6 माह 22 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है।

दीपसिंह: 17 वर्ष
राजसिंह: 14 वर्ष
रणसिंह: 9 वर्ष
नरसिंह: 45 वर्ष
हरिसिंह: 13 वर्ष
जीवनसिंह: 8 वर्ष
पृथ्वीराज चौहान ने जीवनसिंह पर आक्रमण करके तथा उसका वध करके राज्य पर अधिकार प्राप्त कर लिया। पृथ्वीराज चौहान की 5 पीढ़ियों ने 86 वर्ष 20 दिन तक राज्य किया जिसका विवरण नीचे दिया जा रहा है

पृथ्वीराज: 12 वर्ष
अभयपाल: 14 वर्ष
दुर्जनपाल: 11 वर्ष
उदयपाल: 11 वर्ष
यशपाल: 36 वर्ष
विक्रम संवत 1249 (1193 AD) में मोहम्मद गोरी ने यशपाल पर आक्रमण कर उसे प्रयाग के कारागार में डाल दिया और उसके राज्य को अधिकार में ले लिया।


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चौहान वंश
चह्वान (चतुर्भुज)
अग्निवंश के सम्मेलन कर्ता ऋषि

१.वत्सम ऋषि,२.भार्गव ऋषि,३.अत्रि ऋषि,४.विश्वामित्र,५.चमन ऋषि

विभिन्न ऋषियों ने प्रकट होकर अग्नि में आहुति दी तो विभिन्न चार वंशों की उत्पत्ति हुयी जो इस इस प्रकार से है-

१.पाराशर ऋषि ने प्रकट होकर आहुति दी तो परिहार की उत्पत्ति हुयी (पाराशर गोत्र)
२.वशिष्ठ ऋषि की आहुति से परमार की उत्पत्ति हुयी (वशिष्ठ गोत्र)
३.भारद्वाज ऋषि ने आहुति दी तो सोलंकी की उत्पत्ति हुयी (भारद्वाज गोत्र)
४.वत्स ऋषि ने आहुति दी तो चतुर्भुज चौहान की उत्पत्ति हुयी (वत्स गोत्र)

चौहानों की उत्पत्ति आबू शिखर मे हुयी
दोहा-
चौहान को वंश उजागर है,जिन जन्म लियो धरि के भुज चारी,
बौद्ध मतों को विनास कियो और विप्रन को दिये वेद सुचारी॥

चौहान की कई पीढियों के बाद अजय पाल जी महाराज पैदा हुये
जिन्होने आबू पर्वत छोड कर अजमेर शहर बसाया
अजमेर मे पृथ्वी तल से १५ मील ऊंचा तारागढ किला बनाया जिसकी वर्तमान में १० मील ऊंचाई है,महाराज अजयपाल जी चक्रवर्ती सम्राट हुये.

इसी में कई वंश बाद माणिकदेवजू हुये,जिन्होने सांभर झील बनवाई थी।
सांभर बिन अलोना खाय,माटी बिके यह भेद कहाय"
इनकी बहुत पीढियों के बाद माणिकदेवजू उर्फ़ लाखनदेवजू हुये
इनके चौबीस पुत्र हुये और इन्ही नामो से २४ शाखायें चलीं
चौबीस शाखायें इस प्रकार से है-

१. मुहुकर्ण जी उजपारिया या उजपालिया चौहान पृथ्वीराज का वंश
२.लालशाह उर्फ़ लालसिंह मदरेचा चौहान जो मद्रास में बसे हैं
३. हरि सिंह जी धधेडा चौहान बुन्देलखंड और सिद्धगढ में बसे है
४. सारदूलजी सोनगरा चौहान जालोर झन्डी ईसानगर मे बसे है
५. भगतराजजी निर्वाण चौहान खंडेला से बिखराव
६. अष्टपाल जी हाडा चौहान कोटा बूंदी गद्दी सरकार से सम्मानित २१ तोपों की सलामी
७.चन्द्रपाल जी भदौरिया चौहान चन्द्रवार भदौरा गांव नौगांव जिला आगरा
८.चौहिल जी चौहिल चौहान नाडौल मारवाड बिखराव हो गया
९. शूरसेन जी देवडा चौहान सिरोही (सम्मानित)
१०.सामन्त जी साचौरा चौहान सन्चौर का राज्य टूट गया
११.मौहिल जी मौहिल चौहान मोहिल गढ का राज्य टूट गया
१२.खेवराज जी उर्फ़ अंड जी वालेगा चौहान पटल गढ का राज्य टूट गया बिखराव

१३. पोहपसेन जी पवैया चौहान पवैया गढ गुजरात
१४. मानपाल जी मोरी चौहान चान्दौर गढ की गद्दी
१५. राजकुमारजी राजकुमार चौहान बालोरघाट जिला सुल्तानपुर में
१६.जसराजजी जैनवार चौहान पटना बिहार गद्दी टूट गयी
१७.सहसमल जी वालेसा चौहान मारवाड गद्दी
१८.बच्छराजजी बच्छगोत्री चौहान अवध में गद्दी टूटगयी.

१९.चन्द्रराजजी चन्द्राणा चौहान अब यह कुल खत्म हो गया है
२०. खनगराजजी कायमखानी चौहान झुन्झुनू मे है लेकिन गद्दी टूट गयी है,मुसलमान बन गये है
२१. हर्राजजी जावला चौहान जोहरगढ की गद्दी थे लेकिन टूट गयी.
२२.धुजपाल जी गोखा चौहान गढददरेश मे जाकर रहे.
२३.किल्लनजी किशाना चौहान किशाना गोत्र के गूजर हुये जो बांदनवाडा अजमेर मे है
२४.कनकपाल जी कटैया चौहान सिद्धगढ मे गद्दी (पंजाब)

उपरोक्त प्रशाखाओं में अब करीब १२५ हैं

बाद में आनादेवजू पैदा हुये
आनादेवजू के सूरसेन जी और दत्तकदेवजू पैदा हुये
सूरसेन जी के ढोडेदेवजी हुये जो ढूढाड प्रान्त में था,यह नरमांस भक्षी भी थे.
ढोडेदेवजी के चौरंगी-—सोमेश्वरजी--—कान्हदेवजी हुये

सोम्श्वरजी को चन्द्रवंश में उत्पन्न अनंगपाल की पुत्री कमला ब्याही गयीं थीं

सोमेश्वरजी के पृथ्वीराजजी हुये
पृथ्वीराजजी के-
रेनसी कुमार जो कन्नौज की लडाई मे मारे गये
अक्षयकुमारजी जो महमूदगजनवी के साथ लडाई मे मारे गये
बलभद्र जी गजनी की लडाई में मारे गये
इन्द्रसी कुमार जो चन्गेज खां की लडाई में मारे गये

पृथ्वीराज ने अपने चाचा कान्हादेवजी का लडका गोद लिया जिसका नाम राव हम्मीरदेवजू था
हम्मीरदेवजू के-दो पुत्र हुये रावरतन जी और खानवालेसी जी
रावरतन सिंह जी ने नौ विवाह किये थे और जिनके अठारह संताने थीं,
सत्रह पुत्र मारे गये
एक पुत्र चन्द्रसेनजी रहे
चार पुत्र बांदियों के रहे

खानवालेसी जी हुये जो नेपाल चले गये और सिसौदिया चौहान कहलाये.

रावरतन देवजी के पुत्र संकट देवजी हुये
संकटदेव जी के छ: पुत्र हुये
१. धिराज जू जो रिजोर एटा में जाकर बसे इन्हे राजा रामपुर की लडकी ब्याही गयी थी
२. रणसुम्मेरदेवजी जो इटावा खास में जाकर बसे और बाद में प्रतापनेर में बसे
३. प्रतापरुद्रजी जो मैनपुरी में बसे
४. चन्द्रसेन जी जो चकरनकर में जाकर बसे
५. चन्द्रशेव जी जो चन्द्रकोणा आसाम में जाकर बसे इनकी आगे की संतति में सबल सिंह चौहान हुये जिन्होने महाभारत पुराण की टीका लिखी.

मैनपुरी में बसे राजा प्रतापरुद्रजी के दो पुत्र हुये
१.राजा विरसिंह जू देव जो मैनपुरी में बसे
२. धारक देवजू जो पतारा क्षेत्र मे जाकर बसे

मैनपुरी के राजा विरसिंह जू देव के चार पुत्र हुये
१. महाराजा धीरशाह जी इनसे मैनपुरी के आसपास के गांव बसे
२.राव गणेशजी जो एटा में गंज डुडवारा में जाकर बसे इनके २७ गांव पटियाली आदि हैं
३. कुंअर अशोकमल जी के गांव उझैया अशोकपुर फ़कीरपुर आदि हैं
४.पूर्णमल जी जिनके सौरिख सकरावा जसमेडी आदि गांव हैं

महाराजा धीरशाह जी के तीन पुत्र हुये
१. भाव सिंह जी जो मैनपुरी में बसे
२. भारतीचन्द जी जिनके नोनेर कांकन सकरा उमरैन दौलतपुर आदि गांव बसे
२. खानदेवजू जिनके सतनी नगलाजुला पंचवटी के गांव हैं

खानदेव जी के भाव सिंह जी हुये
भावसिंह जी के देवराज जी हुये
देवराज जी के धर्मांगद जी हुये
धर्मांगद जी के तीन पुत्र हुये
१. जगतमल जी जो मैनपुरी मे बसे
२. कीरत सिंह जी जिनकी संतति किशनी के आसपास है
३. पहाड सिंह जी जो सिमरई सहारा औरन्ध आदि गावों के आसपास हैं

भाटी वंश का इतिहास

भाटी वंश का इतिहास भाटियों की मान्यताएं और उनके प्रतिक का सम्पूर्ण वर्णन विस्तार से
वंश परिचय :-
चंद्र:- सर्वप्रथम इस बिंदु पर विचार किया जाना आवश्यक हे की भाटीयों की उत्पत्ति केसे हुयी ? और प्राचीन श्रोतों पर द्रष्टि डालने से ज्ञात होता हे की भाटी चंद्रवंशी है | यह तथ्य प्रमाणों से भी परिपुष्ट होता हे इसमें कोई विवाद भी नहीं हे और न किसी कल्पना का हि सहारा लिया गया है | कहने का तात्पर्य यह हे की दुसरे कुछ राजवंशो की उत्पत्ति अग्नि से मानकर उन्हें अग्निवंशी होना स्वीकार किया हे | सूर्यवंशी राठोड़ों के लिए यह लिखा मिलता हे की राठ फाड़ कर बालक को निकालने के कारन राठोड़ कहलाये | ऐसी किवदंतियों से भाटी राजवंश सर्वथा दूर है |
श्रीमदभगवत पुराण में लिखा हे चंद्रमा का जन्म अत्री ऋषि की द्रष्टि के प्रभाव से हुआ था | ब्रह्माजी ने उसे ओषधियों और नक्षत्रों का अधिपति बनाया | प्रतापी चन्द्रमा ने राजसूय यज्ञ किया और तीनो लोको पर विजयी प्राप्त की उसने बलपूर्वक ब्रहस्पति की पत्नी तारा का हरण किया जिसकी कोख से बुद्धिमान 'बुध ' का जन्म हुआ | इसी के वंश में यदु हुआ जिसके वंशज यादव कहलाये | आगे चलकर इसी वंश में राजा भाटी का जन्म हुआ | इस प्रकार चद्रमा के वंशज होने के कारन भाटी चंद्रवंशी कहलाये |

कुल परम्परा :-
यदु :- भाटी यदुवंशी है | पुराणों के अनुसार यदु का वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों को नष्ट करने वाला है | इसलिए इस वंश में भगवान् श्रीकृष्णा ने जन्म लिया तथा और भी अनेक प्रख्यात नृप इस वंश में हुए |

३.कुलदेवता :-
लक्ष्मीनाथजी :- राजपूतों के अलग -अलग कुलदेवता रहे है | भाटियों ने लक्ष्मीनाथ को अपना कुलदेवता माना है |

४. कुलदेवी :-
स्वांगीयांजी :- भाटियों की कुलदेवी स्वांगयांजी ( आवड़जी ) है | उन्ही के आशीर्वाद और क्रपा से भाटियों को निरंतर सफलता मिली और घोर संघर्ष व् विपदाओं के बावजूद भी उन्हें कभी साहस नहीं खोया | उनका आत्मविश्वास बनाये रखने में देवी -शक्ति ने सहयोग दिया |

५. इष्टदेव

श्रीकृष्णा :- भाटियों के इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्णा है | वे उनकी आराधना और पूजा करते रहे है | श्रीकृष्णा ने गीता के माध्यम से उपदेश देकर जनता का कल्याण किया था | महाभारत के युद्ध में उन्होंने पांडवों का पक्ष लेकर कोरवों को परास्त किया | इतना हि नहीं ,उन्होंने बाणासुर के पक्षधर शिवजी को परास्त कर अपनी लीला व् शक्ति का परिचय दीया | ऐसी मान्यता है की श्रीकृष्णा ने इष्ट रखने वाले भाटी को सदा सफलता मिलती है और उसका आत्मविश्वास कभी नहीं टूटता है |

६.वेद :-
यजुर्वेद :- वेद संख्या में चार है - ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद ,और अर्थवेद | इनमे प्रत्येक में चार भाग है - संहिता ,ब्राहण, आरण्यक और उपनिषद | संहिता में देवताओं की स्तुति के मन्त्र दिए गए हे तथा ;ब्राहण ' में ग्रंथो में मंत्रो की व्याख्या की गयी है | और उपनिषदों में दार्शनिक सिद्धांतों का विवेचन मिलता है | इनके रचयिता गृत्समद ,विश्वामित्र ,अत्री और वामदेव ऋषि थे | यह सम्पूर्ण साहित्य हजारों वर्षों तक गुरु-शिष्यपरम्परा द्वारा मौखिक रूप से ऐक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को प्राप्त होता रहा | बुद्ध काल में इसके लेखन के संकेत मिलते है परन्तु वेदों से हमें इतिहास की पूर्ण जानकारी नहीं मिलती है | इसके बाद लिखे गए पुराण हमें प्राचीन इतिहास का बोध कराते है | भाटियों ने यजुर्वेद को मान्यता दी है | स्वामी दयानंद सरस्वती यजुर्वेद का भाष्य करते हुए लिखते है '' मनुष्यों ,सब जगत की उत्पत्ति करने वाला ,सम्पूर्ण ऐश्वर्ययुक्त सब सुखों के देने और सब विद्या को प्रसिद्ध करने वाला परमात्मा है |............. लोगो को चाहिए की अच्छे अच्छे कर्मों से प्रजा की रक्षा तथा उतम गुणों से पुत्रादि की सिक्षा सदेव करें की जिससे प्रबल रोग ,विध्न और चोरों का आभाव होकर प्रजा व् पुत्रादि सब सुखों को प्राप्त हो | यही श्रेष्ठ काम सब सुखों की खान है | इश्वर आज्ञा देता है की सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विध्या और धर्म के उपदेश से ओरों को भी दुष्टता आदी अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिए | इस प्रकार यजुर्वेद ज्ञान का भंडार है | इसके चालीस अध्याय में १९७५ मंत्र है

७.गोत्र :-
अत्री :- कुछ लोग गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से मानने की भूल करते है | वस्तुत गोत्र का तात्पर्य मूल पुरुष से नहीं हे बल्कि ब्राहण से है जो वेदादि शास्त्रों का अध्ययन कराता था | विवाह ,हवन इत्यादि सुभ कार्य के समय अग्नि की स्तुति करने वाला ब्राहण अपने पूर्व पुरुष को याद करता है इसलिए वह हवन में आसीन व्यक्ति को | वेड के सूक्तों से जिन्होंने आपकी स्तुति की उनका में वंशज हूँ | यदुवंशियों के लिए अत्री ऋषि ने वेदों की रचना की थी | इसलिए इनका गोत्र '' अत्री '' कहलाया |

८.छत्र :-
मेघाडम्बर :- श्री कृष्णा का विवाह कुनणपुर के राजा भीष्मक की पुत्री रुकमणी के साथ हुआ | श्रीकृष्ण जब कुनणपुर गए तब उनका सत्कार नहीं होने से वे कृतकैथ के घर रुके | उस समय इंद्र ने लवाजमा भेजा | जरासंध के अलावा सभी राजाओं ने नजराना किया | श्रीकृषण ने लवाजमा की सभी वस्तुएं पुनः लौटा दी परन्तु मेघाडम्बर छत्र रख लिया | श्रीकृष्ण ने कहा की जब तक मेघाडम्बर रहेगा यदुवंशी राजा बने रहेंगे | अब यह मेघाडम्बर छत्र जैसलमेर के राजघराने की सोभा बढ़ा रहा है |

9.ध्वज :-
भगवा पीला रंग :- पीला रंग समृदधि का सूचक रहा है और भगवा रंग पवित्र माना गया है | इसके अतिरिक्त पीले रंग का सूत्र कृष्ण भगवान के पीताम्बर से और भगवा रंग नाथों के प्रती आस्था से जुड़ा हुआ है | इसलिए भाटी वंश के ध्वज में पीले और भगवा रंग को स्थान दिया गया है |

१०.ढोल :-
भंवर :- सर्वप्रथम महादेवजी ने नृत्य के समय 14 बार ढोल बजा कर 14 महेश्वर सूत्रों का निर्माण किया था | ढोल को सब वाध्यों का शिरोमणि मानते हुए use पूजते आये है | महाभारत के समय भी ढोल का विशेष महत्व रहा है | ढोल का प्रयोग ऐक और जहाँ युद्ध के समय योद्धाओं को एकत्र करने के लिए किया जाता था वही दुसरी और विवाह इत्यादि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बजाया जाता है | भाटियों ने अपने ढोल का नाम भंवर रखा |

११. नक्कारा :-
अग्नजोत ( अगजीत)- नक्कारा अथवा नगारा (नगाड़ा ) ढोल का हि ऐक रूप है | युद्ध के समय ढोल घोड़े पर नहीं रखा जा सकता था इसलिए इसे दो हिस्सो में विभक्त कर नगारे का स्वरूप दिया गया था | नगारा बजाकर युद्ध का श्रीगणेश किया जाता था | विशेष पराक्रम दिखाने पर राज्य की और से ठिकानेदारों को नगारा ,ढोल ,तलवार और घोडा आदी दिए जाते थे | ऐसे ठिकाने ' नगारबंद' ठिकाने कहलाते थे | घोड़े पर कसे जाने वाले नगारे को 'अस्पी' , ऊंट पर रखे जाने वाले नगारे को सुतरी' और हाथी पर रखे जाने नगारे को ' रणजीत ' कहा गया है |''
भाटियों ने अपने नगारे का नाम अग्नजोत रखा है | अर्थात ऐसा चमत्कारी नक्कारा जिसके बजने से अग्नि प्रज्वलित हो जाय | अग्नि से जहाँ ऐक और प्रकाश फैलता है और ऊर्जा मिलती है वही अग्नि दूसरी और शत्रुओं का विनाश भी करती है | कुछ रावों की बहियों में इसका नाम '' अगजीत '' मिलता है , जिसका अर्थ है पापों पर विजय पाने वाला ,नगारा

१२.गुरु:-
रतननाथ :- नाथ सम्प्रदाय का सूत्र भाटी राजवंश के साथ जुड़ा हुआ है | ऐक और नाथ योगियों के आशीर्वाद से भाटियों का कल्याण हुआ तो दूसरी और भाटी राजवंश का पश्रय मिलने पर नाथ संप्रदाय की विकासयात्रा को विशेष बल मिला | 9वीं शताब्दी के मध्य योगी रतननाथ को देरावर के शासक देवराज भाटी को यह आशीर्वाद दिया था की भाटी शासकों का इस क्षेत्र में चिरस्थायी राज्य रहेगा | इसके बारे में यह कथा प्रचलित हे की रतननाथ ने ऐक चमत्कारी रस्कुप्पी वरीहायियों के यहाँ रखी | वरीहायियो के जमाई देवराज भाटी ने उस कुप्पी को अपने कब्जे में कर उसके चमत्कार से गढ़ का निर्माण कराया | रतननाथ को जब इस बात का पता चला तो वह देवराज के पास गए और उन्होंने उस कुप्पी के बारे में पूछताछ की | तब देवराज ने सारी बतला दी | इस पर रतननाथ बहुत खुश हुए और कहा की '' टू हमारा नाम और सिक्का आपने मस्तक पर धारण कर | तेरा बल कीर्ति दोनों बढेगी और तेरे वंशजों का यहाँ चिरस्थायी राज्य रहेगा | राजगद्दी पर आसीन होते समय तू रावल की पदवी और जोगी का भगवा ' भेष ' अवश्य धारण करना |''
भाटी शासकों ने तब से रावल की उपाधि धारण की और रतननाथ को अपना गुरु मानते हुए उनके नियमों का पालन किया |

13.पुरोहित :-
पुष्करणा ब्राहण :- भाटियों के पुरोहित पुष्पकरणा ब्राहण माने गए है | पुष्कर के पीछे ये ब्राहण पुष्पकरणा कहलाये | इनका बाहुल्य ,जोधपुर और बीकानेर में रहा है | धार्मिक अनुष्ठानो को किर्यान्वित कराने में इनका महतवपूर्ण योगदान रहता आया है |

14 पोळपात
रतनू चारण - भाटी विजयराज चुंडाला जब वराहियों के हाथ से मारा गया तो उस समय उसका प्रोहित लूणा उसके कंवर देवराज के प्राण बचाने में सफल हुए | कुंवर को लेकर वह पोकरण के पास अपने गाँव में जाकर रुके | वराहियों ने उसका पीछा करते हुए वहां आ धमके | उन्होंने जब बालक के बारे में पूछताछ की तो लूणा ने बताया की मेरा बेटा है | परन्तु वराहियों को विस्वाश नहीं हुआ | तब लूणा ने आपने बेटे रतनू को साथ में बिठाकर खाना खिलाया | इससे देवराज के प्राण बच गए परन्तु ब्राह्मणों ने रतनू को जातिच्युत कर दिया | इस पर वह सोरठ जाने को मजबूर हुआ | जब देवराज अपना राज्य हस्तगत करने में सफल हुआ तब उसने रतनू का पता लगाया और सोरठ से बुलाकर सम्मानित किया और अपना पोळपात बनाया | रतनू साख में डूंगरसी ,रतनू ,गोकल रतनू आदी कई प्रख्यात चारण हुए है |

15. नदी
यमुना :- भगवान् श्रीकृष्ण की राजधानी यमुना नदी किनारे पर रही ,इसी के कारन भाटी यमुना को पवित्र मानते है |

16.वृक्ष
पीपल और कदम्ब :- भगवान् श्री कृष्णा ने गीता के उपदेश में पीपल की गणना सर्वश्रेष्ठ वृक्षों में की है | वेसे पीपल के पेड़ की तरह प्रगतिशील व् विकासशील प्रवर्ती के रहे है | जहाँ तक कदम्ब का प्रश्न है , इसका सूत्र भगवान् श्री कृष्णा की क्रीड़ा स्थली यमुना नदी के किनारे कदम्ब के पेड़ो की घनी छाया में रही थी | इसके आलावा यह पेड़ हमेशा हर भरा रहता है इसलिए भाटियों ने इसे अंगीकार किया हे | वृहत्संहिता में लिखा है की कदम्ब की लकड़ी के पलंग पर शयन करना मंगलकारी होता है | चरक संहिता के अनुसार इसका फूल विषनीवारक् तथा कफ और वात को बढ़ाने वाला होता है | वस्तुतः अध्यात्मिक और संस्कृतिक उन्नयन में कदम्ब का जितना महत्व रहा है | उतना महत्व समस्त वनस्पतिजगत में अन्य वृक्ष का नहीं रहा है

17.राग
मांड :- जैसलमेर का क्षेत्र मांड प्रदेश के नाम से भी जाना गया है | इस क्षेत्र में विशेष राग से गीत गाये जाते है जिसे मांड -राग भी कहते है | यह मधुर राग अपने आप में अलग पहचान लिए हुए है | मूमल ,रतनराणा ,बायरीयो ,कुरंजा आदी गीत मांड राग में गाये जाने की ऐक दीर्धकालीन परम्परा रही है |

18.माला
वैजयन्ती:- भगवान् श्रीकृष्णा ने जब मुचुकंद ( इक्ष्वाकुवशी महाराजा मान्धाता का पुत्र जो गुफा में सोया हुआ था ) को दर्शन दिया , उस समय उनके रेशमी पीताम्बर धारण किया हुआ था और उनके घुटनों तक वैजयंती माला लटक रही थी | भाटियों ने इसी नाम की माला को अंगीकार किया | यह माला विजय की प्रतिक मानी जाती है |

19.विरुद
उतर भड़ किवाड़ भाटी :-सभी राजवंशो ने उल्लेखनीय कार्य सम्पादित कर अपनी विशिष्ट पहचान बनायीं और उसी के अनुरूप उन्हें विरुद प्राप्त हुआ | दुसरे शब्दों में हम कह सकते हे की '; विरुद '' शब्द से उनकी शोर्य -गाथा और चारित्रिक गुणों का आभास होता है | ढोली और राव भाट जब ठिकानों में उपस्थित होते है , तो वे उस वंश के पूर्वजों की वंशावली का उद्घोष करते हुए उन्हें विरुद सुनते है
भाटियों ने उतर दिशा से भारत पर आक्रमण करने वाले आततायियों का सफलतापूर्ण मुकाबला किया था , अतः वे उतर भड़ किवाड़ भाटी अर्थात उतरी भारत के रक्षक कहलाये | राष्ट्रिय भावना व् गुमेज गाथाओं से मंडित यह विरुद जैसलमेर के राज्य चिन्ह पर अंकित किया गया है

२.अभिवादन
जयश्री कृष्णा :- ऐक दुसरे से मिलते समय भाटी '' जय श्री कृष्णा '' कहकर अभिवादन करते है | पत्र लिखते वक्त भी जय श्री कृष्णा मालूम हो लिखा जाता है |

21. राजचिन्ह :- राजचिन्ह का ऐतिहासिक महत्व रहा है | प्रत्येक चिन्ह के अंकन के पीछे ऐतिहासिक घटना जुडी हुयी रहती हे | जैसलमेर के राज्यचिन्ह में ऐक ढाल पर दुर्ग की बुर्ज और ऐक योद्धा की नंगी भुजा में मुदा हुआ भाला आक्रमण करते हुए दर्शाया गया है | श्री कृष्णा के समय मगध के राजा जरासंघ के पास चमत्कारी भाला था | यादवों ने जरासंघ का गर्व तोड़ने के लिए देवी स्वांगियाजी का प्रतिक माना गया है | ढाल के दोनों हिरण दर्शाए गए है जो चंद्रमा के वाहन है | नीचे '' छ्त्राला यादवपती '' और उतर भड़ किवाड़ भाटी अंकित है | जैसलमेर -नरेशों के राजतिलक के समय याचक चारणों को छत्र का दान दिया जाता रहा है इसलिए याचक उन्हें '' छ्त्राला यादव '' कहते है | इस प्रकार राज्यचिन्ह के ये सूत्र भाटियों के गौरव और उनकी आस्थाओं के प्रतिक रहे है |

22.भट्टीक सम्वत :- भट्टीक सम्वत भाटी राजवंश की गौरव -गरिमा ,उनके दीर्धकालीन वर्चस्व और प्रतिभा का परिचयाक है | वैसे चौहान ,प्रतिहार ,पंवार ,गहलोत ,राठोड़ और कछवाह आदी राजवंशों का इतिहास भी गौरवमय रहा है परन्तु इनमे से किसी ने अपने नाम से सम्वत नहीं चलाया | भाटी राजवंश द्वारा कालगणना के लिए अलग से अपना संवत चलाना उनके वैभव का प्रतिक है | उनके अतीत की यह विशिष्ट पहचान शिलालेखों में वर्षों तक उत्कीर्ण होती रही है |
भाटियों के मूल पुरुष भाटी थे | इस बिंदु पर ध्यान केन्द्रित करते हुए ओझा और दसरथ शर्मा ने आदी विद्वानों ने राजा भाटी द्वारा विक्रमी संवत ६८०-81 में भट्टीक संवत आरम्भ किये जाने का अनुमान लगाया है | परन्तु भाटी से लेकर १०७५ ई. के पूर्व तक प्रकाश में आये शिलालेख में भट्टीक संवत का उल्लेख नहीं है | यदि राजा भाटी इस संवत का पर्वर्तक होते तो उसके बाद के राजा आपने शिलालेखों में इसका उल्लेख जरुर करते |
भट्टीक संवत का प्राचीनतम उल्लेख देरावर के पास चत्रेल जलाशय पर लगे हुए स्तम्भ लेख में हुआ है जो भट्टीक संवत ४५२ ( १०७५ ई= वि.सं.११३२) है इसके बाद में कई शिलेखों प्रकाश में आये जिनके आधार पर कहा जा सकता है की भट्टीक सम्वत का उल्लेख करीब 250 वर्ष तक होता रहा |

खोजे गए शिलालेखों के आधार पर यह तथ्य भी उजागर हुआ हे की भट्टीक सम्वत के साथ साथ वि. सं. का प्रयोग भी वि. सं,. १४१८ से होने लगा | इसके बाद के शिलालेखों में वि. सं, संवत के साथ साथ भट्टीक संवत का भी उल्लेख कहीं कहीं पर मिलता है अब तक प्राप्त शिलालेखों में अंतिम उल्लेख वि. सं. १७५६ ( भट्टीक संवत १०७८ ) अमरसागर के शिलालेख में हुआ है | ऐसा प्रतीत होता है की परवर्ती शासकों ने भाटियों के मूल पुरुष राजा भाटी के नाम से भट्टीक संवत का आरम्भ किया गया | कालगणना के अनुसार राजा भाटी का समय वि. संवत ६८० में स्थिर कर उस समय से हि भट्टीक संवत १ का प्रारंभ माना गया है और उसकी प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए भट्टीक संवत का उल्लेख कुंवर मंगलराव और दुसज तथा परवर्ती शासकों ने शिलालेखों में करवाया | बाद में वि.सं. और भट्टीक संवत के अंतर दर्शाने के लिए दोनों संवतों का प्रयोग शिलालेखों में होने लगा |

एंथोनी ने विभिन्न क्षेत्रों का भ्रमण कर भट्टीक संवत आदी शिलालेखों कि खोज की है | उसके अनुसार अभी तक २३१ शिलालेख भट्टीक संवत के मिले है जिसमे १७३ शिलालेखों में सप्ताह का दिन ,तिथि ,नक्षत्र ,योग आदी पर्याप्त जानकारियां मिली है | भट्टीक संवत ७४० और ८९९ के शिलालेखों में सूर्य राशियों स्पष्ट रूप से देखि जा सकती है | यह तथ्य भी उजागर हुआ है की मार्गशीर्ष सुदी १ से नया वर्ष और अमावस्या के बाद नया महिना प्रारंभ होता है |
भट्टीक सम्वत का अधिकतम प्रयोग ५०२-600 अर्थात ११२४-१२२४ ई. के दोरान हुआ जिसमे 103 शिलालेख है जबकि १२२४-१३५२ ई. के मध्य केवल 66 शिलालेख प्राप्त हुए है | १२२२ से १२५० ई और ११३३४ से १३५२ के मध्य कोई शिलालेख नहीं मिलता है | जहाँ तह सप्ताह के दिनों का महत्व का प्रसन्न है ११२४- १२२२ के शिलालेखों में रविवार की आवृति बहुत अधिक है परन्तु इसके बाद गुरुवार और सोमवार का अधिक प्रयोग हुआ है | मंगलवार और शनिवार का प्रयोग न्यून है

भाटियो का राव वंश वेलियो ,सोरम घाट ,आत्रेस गोत्र ,मारधनी साखा ,सामवेद ,गुरु प्रोहित ,माग्न्यार डगा ,रतनु चारण तीन परवर ,अरनियो ,अपबनो ,अगोतरो ,मथुरा क्षेत्र ,द्वारका कुल क्षेत्र ,कदम वृक्ष ,भेरव ढोल ,गनादि गुणेश ,भगवां निशान ,भगवी गादी ,भगवी जाजम ,भगवा तम्बू ,मृगराज ,सर घोड़ों अगनजीत खांडो ,अगनजीत नगारों ,यमुना नदी ,गोरो भेरू ,पक्षी गरुड़ ,पुष्पकर्णा पुरोहित ,कुलदेवी स्वांगीयाजी ,अवतार श्री कृष्णा ,छत्र मेघाडंबर ,गुरु दुर्वासा रतननाथ ,विरूप उतर भड किवाड़ ,छ्त्राला यादव ,अभिवादन जय श्री कृष्णा ,व्रत एकादशी ।

भाटी शासक का शासन काल 5000
आजतक भारत के राजवंशो में किसी भी राजवंश का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा हुआ है । केवल यदुवंश भाटी ही ऐसा वंश है जो 5000 साल लगातार भारत भूमि पर कही न कही शासन करते चले आ रहे है । इतने लम्बे समय में उनकी राजधानिया एंड काल इस प्रकार रहे ।
राजधानी का नाम काल
काशी 900 साल
द्वारिका 500 साल
मथुरा 1050 साल
गजनी 1500 साल
लाहोर 600 साल
हंसार 160 साल
भटनेर 80 साल
मारोट 140 साल
तनोट 40 साल
देरावर 20 साल
लुद्र्वा 180 साल
जैसलमेर 791 साल
इतिहास में 5000 साल के लम्बे समय में 49 युद्ध भारत भूमि की रक्षा के लिए शत्रुओं से लड़े गए उनका क्रमबद्ध वर्णन किया गया है । जिसमे 10 युद्ध गजनी पर हुए इस इतिहास में आदिनारायण से वर्तमान महारावल बृजराज सिंह तक ।

208 पीढियों का वर्णन है । यूनान के बादशाह सिकंदर एंड जैसलमेर के महारावल शालिवाहन 167 के बीच युद्ध हुआ जिसमे महारावल विजयी हुए । भटनेर के तीन शाके तनोट पर एक शाका जिसमे 350 क्षत्रानियो ने जोहर किया रोह्ड़ी का शाका , जैसलमेर के ढाई शाके इस प्रकार कुल साढ़े ग्यारह शाके यदुवंशी भाटियो द्वारा किये गए प्रस्तुत इतिहास में 36 वंशों के नाम यदुवंशियों की 11 साखायें भाटियो की 150 साखायें एंड उनकी जागीरे भाटियो द्वारा कला साहित्य संगीत चित्रकला स्थापत्य कला जैसलमेर की स्थापना जैसलमेर का राज्य चिन्ह भाटी मुद्रा टोल जैसलमेर के दर्शनीय स्थान सामान्य ज्ञान पटुओ का इतिहास राठौर एंड परमारों की ख्याति का भी वर्णन है ।

शेखावत कछवाह वंश

शेखावत सूर्यवंशी कछवाह क्षत्रिय वंश की एक शाखा है देशी राज्यों के भारतीय संघ में विलय से पूर्व मनोहरपुर,शाहपुरा, खंडेला,सीकर, खेतडी,बिसाऊ,सुरजगढ़,नवलगढ़, मंडावा,मुकन्दगढ़, दांता,खुड,खाचरियाबास,दूंद्लोद,अलसीसर,मलसिसर,रानोली आदि प्रभाव शाली ठिकाने शेखावतों के अधिकार में थे जो शेखावाटी नाम से प्रशिध है वर्तमान में शेखावाटी की भौगोलिक सीमाएं सीकर और झुंझुनू दो जिलों तक ही सीमित है भगवान राम के पुत्र कुश के वंशज कछवाह कहलाये महाराजा कुश के वंशजों की एक शाखा अयोध्या से चल कर साकेत आयी, साकेत से रोहतास गढ़ और रोहताश से मध्य प्रदेश के उतरी भाग में निषद देश की राजधानी पदमावती आये रोहतास गढ़ का एक राजकुमार तोरनमार मध्य प्रदेश आकर वाहन के राजा गौपाल का सेनापति बना और उसने नागवंशी राजा देवनाग को पराजित कर राज्य पर अधिकार कर लिया और सिहोनियाँ को अपनी राजधानी बनाया कछवाहों के इसी वंश में सुरजपाल नाम का एक राजा हुवा जिसने ग्वालपाल नामक एक महात्मा के आदेश पर उन्ही नाम पर गोपाचल पर्वत पर ग्वालियर दुर्ग की नीवं डाली महात्मा ने राजा को वरदान दिया था कि जब तक तेरे वंशज अपने नाम के आगे पाल शब्द लगाते रहेंगे यहाँ से उनका राज्य नष्ट नहीं होगा सुरजपाल से 84 पीढ़ी बाद राजा नल हुवा जिसने नलपुर नामक नगर बसाया और नरवर के प्रशिध दुर्ग का निर्माण कराया नरवर में नल का पुत्र ढोला (सल्ह्कुमार) हुवा

जो राजस्थान में प्रचलित ढोला मारू के प्रेमाख्यान का प्रशिध नायक है उसका विवाह पुन्गल कि राजकुमारी मार्वणी के साथ हुवा था, ढोला के पुत्र लक्ष्मण हुवा, लक्ष्मण का पुत्र भानु और भानु के परमप्रतापी महाराजाधिराज बज्र्दामा हुवा जिसने खोई हुई कछवाह राज्यलक्ष्मी का पुनः उद्धारकर ग्वालियर दुर्ग प्रतिहारों से पुनः जित लिया बज्र्दामा के पुत्र मंगल राज हुवा जिसने पंजाब के मैदान में महमूद गजनवी के विरुद्ध उतरी भारत के राजाओं के संघ के साथ युद्ध कर अपनी वीरता प्रदर्शित की थी मंगल राज दो पुत्र किर्तिराज व सुमित्र हुए,किर्तिराज को ग्वालियर व सुमित्र को नरवर का राज्य मिला सुमित्र से कुछ पीढ़ी बाद सोढ्देव का पुत्र दुल्हेराय हुवा जिनका विवाह dhundhad के मौरां के चौहान राजा की पुत्री से हुवा था
दौसा पर अधिकार करने के बाद दुल्हेराय ने मांची,bhandarej खोह और झोट्वाडा पर विजय पाकर सर्वप्रथम इस प्रदेश में कछवाह राज्य की नीवं डाली मांची में इन्होने अपनी कुलदेवी जमवाय माता का मंदिर बनवाया वि.सं. 1093 में दुल्हेराय का देहांत हुवा दुल्हेराय के पुत्र काकिलदेव पिता के उतराधिकारी हुए जिन्होंने आमेर के सुसावत जाति के मीणों का पराभव कर आमेर जीत लिया और अपनी राजधानी मांची से आमेर ले आये

काकिलदेव के बाद हणुदेव व जान्हड़देव आमेर के राजा बने जान्हड़देव के पुत्र पजवनराय हुए जो महँ योधा व सम्राट प्रथ्वीराज के सम्बन्धी व सेनापति थे संयोगिता हरण के समय प्रथ्विराज का पीछा करती कन्नोज की विशाल सेना को रोकते हुए पज्वन राय जी ने वीर गति प्राप्त की थी आमेर नरेश पज्वन राय जी के बाद लगभग दो सो वर्षों बाद उनके वंशजों में वि.सं. 1423 में राजा उदयकरण आमेर के राजा बने,राजा उदयकरण के पुत्रो से कछवाहों की शेखावत, नरुका व राजावत नामक शाखाओं का निकास हुवा उदयकरण जी के तीसरे पुत्र बालाजी जिन्हें बरवाडा की 12 गावों की जागीर मिली शेखावतों के आदि पुरुष थे बालाजी के पुत्र मोकलजी हुए और मोकलजी के पुत्र महान योधा शेखावाटी व शेखावत वंश के प्रवर्तक महाराव शेखाजी का जनम वि.सं. 1490 में हुवा वि. सं. 1502 में मोकलजी के निधन के बाद राव शेखाजी बरवाडा व नान के 24 गावों के स्वामी बने राव शेखाजी ने अपने साहस वीरता व सेनिक संगठन से अपने आस पास के गावों पर धावे मारकर अपने छोटे से राज्य को 360 गावों के राज्य में बदल दिया राव शेखाजी ने नान के पास अमरसर बसा कर उसे अपनी राजधानी बनाया और शिखर गढ़ का निर्माण किया राव शेखाजी के वंशज उनके नाम पर शेखावत कहलाये

जिनमे अनेकानेक वीर योधा,कला प्रेमी व स्वतंत्रता सेनानी हुए शेखावत वंश जहाँ राजा रायसल जी,राव शिव सिंह जी, शार्दुल सिंह जी, भोजराज जी,सुजान सिंह आदि वीरों ने स्वतंत्र शेखावत राज्यों की स्थापना की वहीं बठोथ, पटोदा के ठाकुर डूंगर सिंह, जवाहर सिंह शेखावत ने भारतीय स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चालू कर शेखावाटी में आजादी की लड़ाई का बिगुल बजा दिया था शेखावत वंश के ही श्री भैरों सिंह जी भारत के उप राष्ट्रपति बने |

शेखावत वंश की शाखाएँ

* टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍- शेखा जी के ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा जी के वंशज टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ कहलाये !खोह,पिपराली,गुंगारा आदि इनके ठिकाने थे जिनके लिए यह दोहा प्रशिध है
खोह खंडेला सास्सी गुन्गारो ग्वालेर !
अलखा जी के राज में पिपराली आमेर !!
टकनॆत शॆखावत‍‍‍‍ शेखावटी में त्यावली,तिहाया,ठेडी,मकरवासी,बारवा ,खंदेलसर,बाजोर व चुरू जिले में जसरासर,पोटी,इन्द्रपुरा,खारिया,बड्वासी,बिपर आदि गावों में निवास करते है !

* रतनावत शेखावत -महाराव शेखाजी के दुसरे पुत्र रतना जी के वंशज रतनावत शेखावत कहलाये इनका स्वामित्व बैराठ के पास प्रागपुर व पावठा पर था !हरियाणा के सतनाली के पास का इलाका रतनावातों का चालीसा कहा जाता है
*मिलकपुरिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र आभाजी,पुरन्जी,अचलजी के वंशज ग्राम मिलकपुर में रहने के कारण मिलकपुरिया शेखावत कहलाये इनके गावं बाढा की ढाणी, पलथाना ,सिश्याँ,देव गावं,दोरादास,कोलिडा,नारी,व श्री गंगानगर के पास मेघसर है !

* खेज्डोलिया शेखावत -शेखा जी के पुत्र रिदमल जी वंशज खेजडोली गावं में बसने के कारण खेज्डोलिया शेखावत कहलाये !आलसर,भोजासर छोटा,भूमा छोटा,बेरी,पबाना,किरडोली,बिरमी,रोलसाहब्सर,गोविन्दपुरा,रोरू बड़ी,जोख,धोद,रोयल आदि इनके गावं है !
*बाघावत शेखावत - शेखाजी के पुत्र भारमल जी के बड़े पुत्र बाघा जी वंशज बाघावत शेखावत कहलाते है ! इनके गावं जेई पहाड़ी,ढाकास,सेनसर,गरडवा,बिजोली,राजपर,प्रिथिसर,खंडवा,रोल आदि है !

*सातलपोता शेखावत -शेखाजी के पुत्र कुम्भाजी के वंशज सातलपोता शेखावत कहलाते है !

*रायमलोत शेखावत -शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी के वंशज रायमलोत शेखावत कहलाते है
इनकी भी कई शाखाएं व प्रशाखाएँ है जो इस प्रकार है !
-तेजसी के शेखावत -रायमल जी पुत्र तेज सिंह के वंशज तेजसी के शेखावत कहलाते है ये अलवर
जिले के नारायणपुर,गाड़ी मामुर और बान्सुर के परगने में के और गावौं में आबाद है !

-सहसमल्जी का शेखावत -- रायमल जी के पुत्र सहसमल जी के वंशज सहसमल जी का
शेखावत कहलाते है !इनकी जागीर में सांईवाड़ थी !
-जगमाल जी का शेखावत -जगमाल जी रायमलोत के वंशज जगमालजी का शेखावत कहलाते
है !इनकी १२ गावों की जागीर हमीरपुर थी जहाँ ये आबाद है

-सुजावत शेखावत -सूजा रायमलोत के पुत्र सुजावत शेखावत कहलाये !सुजाजी रायमल जी के
ज्यैष्ठ पुत्र थे जो अमरसर के राजा बने !
-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

-लुनावत शेखावत :-लुन्करण जी सुजावत के वंशज लुन्करण जी का शेखावत कहलाते है इन्हें लुनावत शेखावत भी कहते है,इनकी भी कई शाखाएं है !
उग्रसेन जी का शेखावत ,अचल्दास का शेखावत,सावलदास जी का शेखावत,मनोहर दासोत शेखावत आदि !

रायसलोत शेखावत :- लाम्याँ की छोटीसी जागीर जागीर से खंडेला व रेवासा का स्वतंत्र राज्य
स्थापित करने वाले राजा रायसल दरबारी के वंशज रायसलोत शेखावत कहलाये !राजा रायसल के १२
पुत्रों में से सात प्रशाखाओं का विकास हुवा जो इस प्रकार है !
A- लाड्खानी :- राजा रायसल जी के जेस्ठ पुत्र लाल सिंह जी के वंशज लाड्खानी कहलाते है
दान्तारामगढ़ के पास ये कई गावों में आबाद है यह क्षेत्र माधो मंडल के नाम से भी प्रशिध है
पूर्व उप राष्ट्रपति श्री भैरों सिंह जी इसी वंश से है !
B- रावजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तिर्मल जी के वंशज रावजी का शेखावत कहलाते है !
इनका राज्य सीकर,फतेहपुर,लछमनगढ़ आदि पर था !
C- ताजखानी शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र तेजसिंह के वंशज कहलाते है इनके गावं चावंङिया,
भोदेसर ,छाजुसर आदि है
D. परसरामजी का शेखावत :- राजा रायसल जी के पुत्र परसरामजी के वंशज परसरामजी का शेखावत कहलाते है !
E. हरिरामजी का शेखावत :- हरिरामजी रायसलोत के वंशज हरिरामजी का शेखावत कहलाये !

F. गिरधर जी का शेखावत :- राजा गिरधर दास राजा रायसलजी के बाद खंडेला के राजा बने
इनके वंशज गिरधर जी का शेखावत कहलाये ,जागीर समाप्ति से पहले खंडेला,रानोली,खूड,दांता आदि ठिकाने इनके आधीन थे !
G. भोजराज जी का शेखावत :- राजा रायसल के पुत्र और उदयपुरवाटी के स्वामी भोजराज के वंशज भोजराज जी का शेखावत कहलाते है ये भी दो उपशाखाओं के नाम से जाने जाते है,
१-शार्दुल सिंह का शेखावत ,२-सलेदी सिंह का शेखावत
*गोपाल जी का शेखावत - गोपालजी सुजावत के वंशज गोपालजी का शेखावत कहलाते है
* भेरू जी का शेखावत - भेरू जी सुजावत के वंशज भेरू जी का शेखावत कहलाते है
* चांदापोता शेखावत - चांदाजी सुजावत के वंशज के वंशज चांदापोता शेखावत कहलाये

प्रतिहार वंश

आज की यह पोस्ट,मर्यादा पुरुषोत्तम सुर्यवंश शिरोमणि प्रभु श्री राम के भ्राता लक्ष्मण जी से निकास माने जाने वाले प्रतापी प्रतिहार वंश पर केन्द्रित है। 

यूँ तो प्रतिहारो की उत्पत्ति पर कई सारे मत है,किन्तु उनमे से अधिकतर कपोल कल्पनाओं के अलावा कुछ नहीं है। प्राचीन साहित्यों में प्रतिहार का अर्थ "द्वारपाल" मिलता है। अर्थात यह वंश विश्व के मुकुटमणि भारत के पश्चिमी द्वारा अथवा सीमा पर शासन करने के चलते ही प्रतिहार कहलाया।

अब प्रतिहार वंश की उत्पत्ति के बारे में जो भ्रांतियाँ है उनका निराकारण करते है। एक मान्यता यह है की ये वंश अबू पर्वत पर हुए यज्ञ की अग्नि से उत्पन्न हुआ है,जो सरासर कपोल कल्पना है।हो सकता है अबू पर हुए यज्ञ में इस वंश की हाजिरी के कारण इस वंश के साथ साथ अग्निवंश की कथा रूढ़ हो गई हो। खैर अग्निवंश की मान्यता कल्पना के अलावा कुछ नहीं हो सकती और ऐसी कल्पित मान्यताये इतिहास में महत्त्व नहीं रखती।

इस वंश की उत्पत्ति के संबंध में प्राचीन साहित्य,ग्रन्थ और शिलालेख आदि क्या कहते है इसपर भी प्रकाश डालते है।

१) सोमदेव सूरी ने सन ९५९ में यशस्तिलक चम्पू में गुर्जर देश का वर्णन किया है। वह लिखता है कि न केवल प्रतिहार बल्कि चावड़ा,चालुक्य,आदि वंश भी इस देश पर राज करने के कारण गुर्जर कहलाये।

२) विद्व शाल मंजिका,सर्ग १,श्लोक ६ में राजशेखर ने कन्नौज के प्रतिहार राजा भोजदेव के पुत्र महेंद्र को रघुकुल तिलक अर्थात सूर्यवंशी क्षत्रिय बताया है।

३)कुमारपाल प्रबंध के पृष्ठ १११ पर भी गुर्जर देश का वर्णन है...

कर्णाटे,गुर्जरे लाटे सौराष्ट्रे कच्छ सैन्धवे।
उच्चाया चैव चमेयां मारवे मालवे तथा।।

४) महाराज कक्कूड का घटियाला शिलालेख भी इसे लक्ष्मण का वंश प्रमाणित करता है....अर्थात रघुवंशी

रहुतिलओ पड़ीहारो आसी सिरि लक्खणोत्रि रामस्य।
तेण पडिहार वन्सो समुणई एत्थ सम्प्तो।।

५) बाउक प्रतिहार के जोधपुर लेख से भी इनका रघुवंशी होना प्रमाणित होता है।(९ वी शताब्दी)

स्वभ्राता राम भद्रस्य प्रतिहार्य कृतं सतः।
श्री प्रतिहारवड शोयमत श्रोन्नतिमाप्युयात।

इस शिलालेख के अनुसार इस वंश का शासनकाल गुजरात में प्रकाश में आया था।

६) चीनी यात्री हुएन्त त्सांग ने गुर्जर राज्य की राजधानी पीलोमोलो,भीनमाल या बाड़मेर कहा है।

७) भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रशस्ति

मन्विक्षा कुक्कुस्थ(त्स्थ) मूल पृथवः क्ष्मापल कल्पद्रुमाः।
तेषां वंशे सुजन्मा क्रमनिहतपदे धाम्नि वज्रैशु घोरं,
राम: पौलस्त्य हिन्श्रं क्षतविहित समित्कर्म्म चक्रें पलाशे:।
श्लाध्यास्त्स्यानुजो सौ मधवमदमुषो मेघनादस्य संख्ये,
सौमित्रिस्तिव्रदंड: प्रतिहरण विर्धर्य: प्रतिहार आसी।
तवुन्शे प्रतिहार केतन भृति त्रैलौक्य रक्षा स्पदे
देवो नागभट: पुरातन मुने मुर्तिर्ब्बमूवाभदुतम।

अर्थात-सुर्यवंश में मनु,इश्वाकू,कक्कुस्थ आदि राजा हुए,उनके वंश में पौलस्त्य(रावण) को मारने वाले राम हुए,जिनका प्रतिहार उनका छोटा भाई सौमित्र(सुमित्रा नंदन लक्ष्मण) था,उसके वंश में नागभट हुआ। इसी प्रशस्ति के सातवे श्लोक में वत्सराज के लिए लिखा है क़ि उस क्षत्रिय पुंगव(विद्वान्) ने बलपूर्वक भड़ीकुल का साम्राज्य छिनकर इश्वाकू कुल की उन्नति की।

८) देवो यस्य महेन्द्रपालनृपति: शिष्यों रघुग्रामणी:(बालभारत,१/११)

तेन(महिपालदेवेन)च रघुवंश मुक्तामणिना(बालभारत)

बालभारत में भी महिपालदेव को रघुवंशी कहा है।

९)ओसिया के महावीर मंदिर का लेख जो विक्रम संवत १०१३(ईस्वी ९५६) का है तथा संस्कृत और देवनागरी लिपि में है,उसमे उल्लेख किया गया है कि-

तस्या कार्षात्कल प्रेम्णालक्ष्मण: प्रतिहारताम ततो अभवत प्रतिहार वंशो राम समुव:।।६।।
तदुंदभशे सबशी वशीकृत रिपु: श्री वत्स राजोडsभवत।

अर्थात लक्ष्मण ने प्रेमपूर्वक उनके प्रतिहारी का कार्य किया,अनन्तर श्री राम से प्रतिहार वंश की उत्पत्ति हुई। उस प्रतिहार वंश में वत्सराज हुआ।

१०) गौडेंद्रवंगपतिनिर्ज्जयदुर्व्विदग्धसदगुर्ज्जरेश्वरदिगर्ग्गलतां च यस्य।
नीत्वा भुजं विहतमालवरक्षणार्त्थ स्वामी तथान्यमपि राज्यछ(फ) लानि भुंक्ते।।
-बडोदे का दानपत्र,Indian Antiquary,Vol 12,Page 160

उक्त ताम्रपत्र के 'गुजरेश्वर' एद का अर्थ 'गुर्जर देश(गुजरात) का राजा' स्पष्ट है,जिसे खिंच तानकर गुर्जर जाती या वंश का राजा मानना सर्वथा असंगत है। संस्कृत साहित्य में कई ऐसे उदाहरण मिलते है।

ये लेख गुजरेश्वर,गुर्जरात्र,गुज्जुर इन संज्ञाओ का सही मायने में अर्थ कर इसे जाती सूचक नहीं स्थान सूचक सिद्ध करता है जिससे भगवान्लाल इन्द्रजी,देवदत्त रामकृष्ण भंडारकर,जैक्सन तथा अन्य सभी विद्वानों के मतों को खारिज करता है जो इस सज्ञा के उपयोग से प्रतिहारो को गुर्जर मानते है।

११) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।

१२)३६ राजवंशो की किसी भी सूची में इस वंश के साथ "गुर्जर" एद का प्रयोग नहीं किया गया है। यह तथ्य भी गुर्जर एद को स्थानसूचक सिद्धकर सम्बंधित एद का कोइ विशेष महत्व नही दर्शाता।

१३)ब्राह्मण उत्पत्ति के विषय में इस वंश के साथ द्विज,विप्र यह दो संज्ञाए प्रयुक्त की गई है,तो द्विज का अर्थ ब्राह्मण न होकर द्विजातिय(जनेउ) संस्कार से है न की ब्राह्मण से। ठीक इसी तरह विप्र का अर्थ भी विद्वान पंडित अर्थात "जिसने विद्वत्ता में पांडित्य हासिल किया हो" ही है।

१४) कुशनवंशी राजा कनिष्क के समय में गुर्जरों का भारतवर्ष में आना प्रमाणशून्य बात है,जिसे स्वयं डॉ.भगवानलाल इन्द्रजी ने स्वीकार किया है,और गुप्तवंशियों के समय में गुजरो को राजपूताना,गुजरात और मालवे में जागीर मिलने के विषय में कोई प्रमाण नहीं दिया है। न तो गुप्त राजाओं के लेखो और भडौच से मिले दानपत्रों में इसका कही उल्लेख है।

उपरोक्त सभी प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते है की,प्रतिहार वंश निस्संदेह भारतीय मूल का है तथा शुद्ध क्षत्रिय राजपूत वंश है।

प्रतिहार वंश
संस्थापक- हरिषचन्द्र
वास्तविक - नागभट्ट प्रथम (वत्सराज)
पाल -धर्मपाल
राष्ट्रकूट-ध्रव
प्रतिहार-वत्सराज
राजस्थान के दक्षिण पष्चिम में गुर्जरात्रा प्रदेष में प्रतिहार वंष की स्थापना हुई। ये अपनी उत्पति लक्ष्मण से मानते है। लक्षमण राम के प्रतिहार (द्वारपाल) थे। अतः यह वंष प्रतिहार वंष कहलाया। नगभट्ट प्रथम पष्चिम से होने वाले अरब आक्रमणों को विफल किया। नागभट्ट प्रथम के बाद वत्सराज षासक बना। वह प्रतिहार वंष का प्रथम षासक था जिसने त्रिपक्षीप संघर्ष त्रिदलीय संघर्ष/त्रिराष्ट्रीय संघर्ष में भाग लिया।
त्रिपक्षीय संघर्ष:- 8 वीं से 10 वीं सदी के मध्य लगभग 200 वर्षो तक पष्चिम के प्रतिहार पूर्व के पाल और दक्षिणी भारत के राष्ट्रकूट वंष ने कन्नौज की प्राप्ति के लिए जो संघर्ष किया उसे ही त्रिपक्षीय संघर्ष कहा जाता है।

नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज के पष्चात् षक्तिषाली षासक हुआ उसने भी अरबों को पराजित किया किन्तु कालान्तर में उसने गंगा में डूब आत्महत्या कर ली।

मिहिर भोज प्रथम - इस वंष का सर्वाधिक षक्तिषाली षासक इसने त्रिपक्षीय संघर्ष में भाग लेकर कन्नौज पर अपना अधिकार किया और प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया। मिहिर भोज की उपब्धियों की जानकारी उसके ग्वालियर लेख से प्राप्त होती है।
- आदिवराह व प्रीाास की उपाधी धारण की।
-आदिवराह नामक सिक्के जारी किये।
मिहिर भोज के पष्चात् महेन्द्रपाल षासक बना। इस वंष का अन्तिम षासक गुर्जर प्रतिहार वंष के पतन से निम्नलिखित राज्य उदित हुए।
मारवाड़ का राठौड़ वंष
मेवाड़ का सिसोदिया वंष
जैजामुक्ति का चन्देष वंष
ग्वालियर का कच्छपधात वंष

गुर्जर-प्रतिहार
8वीं से 10वीं षताब्दी में उत्तर भारत में प्रसिद्ध राजपुत वंष गुर्जर प्रतिहार था। राजस्थान में प्रतिहारों का मुख्य केन्द्र मारवाड़ था। पृथ्वीराज रासौ के अनुसार प्रतिहारों की उत्पत्ति अग्निकुण्ड से हुई है।
प्रतिहार का अर्थ है द्वारपाल प्रतिहार स्वयं को लक्ष्मण वंषिय सूर्य वंषीय या रधुकुल वंषीय मानते है। प्रतिहारों की मंदिर व स्थापत्य कला निर्माण षैली गुर्जर प्रतिहार षैली या महामारू षैली कहलाती है। प्रतिहारों ने अरब आक्रमण कारीयों से भारत की रक्षा की अतः इन्हें "द्वारपाल"भी कहा जाता है। प्रतिहार गुर्जरात्रा प्रदेष (गुजरात) के पास निवास करते थे। अतः ये गुर्जर - प्रतिहार कहलाएं। गुर्जरात्रा प्रदेष की राजधानी भी

मुहणौत नैणसी (राजपुताने का अबुल-फजल) के अनुसार गुर्जर प्रतिहारों की कुल 26 शाखाएं थी। जिमें से मण्डोर व भीनमाल शाखा सबसे प्राचीन थी।
मण्डौर शाखा का संस्थापक - हरिचंद्र था।
गुर्जर प्रतिहारों की प्रारम्भिक राजधानी -मण्डौर

भीनमाल शाखा
1. नागभट्ट प्रथम:- नागभट्ट प्रथम ने 730 ई. में भीनमाल में प्रतिहार वंष की स्थापना की तथा भीनमाल को प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
2. वत्सराज द्वितीय:- वत्सराज भीनमाल प्रतिहार वंष का वास्तिवक संस्थापक था। वत्सराज को रणहस्तिन की उपाधि प्राप्त थी। वत्सराज ने औसियां के मंदिरों का निर्माण करवाया। औसियां सूर्य व जैन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इसके समय उद्योतन सूरी ने "कुवलयमाला" की रचना 778 में जालौर में की। औसियां के मंदिर महामारू षैली में बने है। लेकिन औसियां का हरिहर मंदिर पंचायतन षैली में बना है।
-औसियां राजस्थान में प्रतिहारों का प्रमुख केन्द्र था।
-औसिंया (जोधपुर)के मंदिर प्रतिहार कालीन है।
-औसियां को राजस्थान को भुवनेष्वर कहा जाता है।
-औसियां में औसिया माता या सच्चिया माता (ओसवाल जैनों की देवी) का मंदिर है जिसमें महिसासुर मर्दनी की प्रतिमा है।
-जिनसेन ने "हरिवंष पुराण " की रचना की।
वत्सराज ने त्रिपक्षिय संर्घष की षुरूआत की तथा वत्सराज राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से पराजित हुआ।

त्रिपक्षिय/त्रिराष्ट्रीय संर्घष
कन्नौज को लेकर उत्तर भारत की गुर्जर प्रतिहार पूर्व में बंगाल का पाल वंष तथा दक्षिणी भारत का राष्ट्रवंष के बीच 100 वर्षो तक के चले संघर्ष को त्रिपक्षिय संघर्ष कहा जाता है।

3. नागभट्ट द्वितीय:- वत्सराज व सुन्दर देवी का पुत्र। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणकारियों पर पूर्णतयः रोक लगाई। नागभट्ट द्वितीय ने गंगा समाधि ली। नागभट्ट द्वितीय ने त्रिपक्षिय संघर्ष में कन्नौज को जीतकर सर्वप्रथम प्रतिहारों की राजधानी बनाया।
4. मिहिर भोज (835-885 ई.):- मिहिर भोज को आदिवराह व प्रभास की उपाधि प्राप्त थी। मिहिर भोज वेष्णों धर्म का अनुयायी था। मिहिरभोज प्रतिहारों का सबसे अधिक षक्तिषाली राजा था। इस काल चर्माेत्कर्ष का काल था। मिहिर भोज ने चांदी के द्रुम सिक्के चलवाये। मिहिर भोज को भोज प्रथम भी कहा जाता है। ग्वालियर प्रषक्ति मिहिर भोज के समय लिखी गई।
851 ई. में अरब यात्री सुलेमान न मिहिर भोज के समय भारत यात्रा की। अरबीयात्री सुलेमान व कल्वण ने अपनी राजतरंगिणी (कष्मीर का इतिहास) में मिहिर भोज के प्रषासन की प्रसंषा की। सुलेमान ने भोज को इस्लाम का षत्रु बताया।
5. महिन्द्रपाल प्रथम:- इसका गुरू व आश्रित कवि राजषेखर था। राजषेखर ने कर्पुर मंजरी, काव्य मिमांसा, प्रबंध कोष हरविलास व बाल रामायण की रचना की। राजषेखर ने महेन्द्रपाल प्रथम को निर्भय नरेष कहा है।

6. महिपाल प्रथम:- राजषेखर महिपाल प्रथम के दरबार में भी रहा। 915 ई. में अरब यात्री अली मसुदी ने गुर्जर व राजा को बोरा कहा है।
7. राज्यपाल:- 1018 ई. में मुहम्मद गजनवी ने प्रतिहार राजा राज्यपाल पर आक्रमण किया।
8. यषपाल:- 1036 ई. में प्रतिहारों का अन्तिम राजा यषपाल था।
भीनमाल:- हेनसांग/युवाचांग न राजस्थान में भीनमाल व बैराठ की यात्रा की तथा अपने ग्रन्थ सियू की मे भीनमाल को पोनोमोल कहा है। गुप्तकाल के समय का प्रसिद्व गणितज्ञ व खगोलज्ञ ब्रहमागुप्त भीनमाल का रहने वाला था जिससे ब्रहमाण्ड की उत्पत्ति का सिद्धान्त " ब्रहमास्फुट सिद्धान्त (बिग बैन थ्यौरी) का प्रतिपादन किया।

-प्रतिहार राजपूतो की वर्तमान स्थिति---

भले ही यह विशाल प्रतिहार राजपूत साम्राज्य बाद में खण्डित हो गया हो लेकिन इस वंश के वंशज राजपूत आज भी इसी साम्राज्य की परिधि में मिलते हैँ।
उत्तरी गुजरात और दक्षिणी राजस्थान में भीनमाल के पास जहाँ प्रतिहार वंश की शुरुआत हुई, आज भी वहॉ प्रतिहार राजपूत पड़िहार आदि नामो से अच्छी संख्या में मिलते हैँ।

प्रतिहारों की द्वितीय राजधानी मारवाड़ में मंडोर रही। जहाँ आज भी प्रतिहार राजपूतो की इन्दा शाखा बड़ी संख्या में मिलती है। राठोड़ो के मारवाड़ आगमन से पहले इस क्षेत्र पर प्रतिहारों की इसी शाखा का शासन था जिनसे राठोड़ो ने जीत कर जोधपुर को अपनी राजधानी बनाया। 17वीं सदी में भी जब कुछ समय के लिये मुगलो से लड़ते हुए राठोड़ो को जोधपुर छोड़ना पड़ गया था तो स्थानीय इन्दा प्रतिहार राजपूतो ने अपनी पुरातन राजधानी मंडोर पर कब्जा कर लिया था।

इसके अलावा प्रतिहारों की अन्य राजधानी ग्वालियर और कन्नौज के बीच में प्रतिहार राजपूत परिहार के नाम से बड़ी संख्या में मिलते हैँ।
बुन्देल खंड में भी परिहारों की अच्छी संख्या है। यहाँ परिहारों का एक राज्य नागौद भी है जो मिहिरभोज के सीधे वंशज हैँ।

प्रतिहारों की एक शाखा राघवो का राज्य वर्तमान में उत्तर राजस्थान के अलवर, सीकर, दौसा में था जिन्हें कछवाहों ने हराया। आज भी इस क्षेत्र में राघवो की खडाड शाखा के राजपूत अच्छी संख्या में हैँ। इन्ही की एक शाखा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर, अलीगढ़, रोहिलखण्ड और दक्षिणी हरयाणा के गुडगाँव आदि क्षेत्र में बहुसंख्या में है। एक और शाखा मढाढ के नाम से उत्तर हरयाणा में मिलती है

उत्तर प्रदेश में सरयूपारीण क्षेत्र में भी प्रतिहार राजपूतो की विशाल कलहंस शाखा मिलती है। इनके अलावा संपूर्ण मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और उत्तरी महाराष्ट्र आदि में(जहाँ जहाँ प्रतिहार साम्राज्य फैला था) अच्छी संख्या में प्रतिहार/परिहार राजपूत मिलते हैँ।

परमार वंश उत्पत्ति

===================परमार वंश के गोत्र-प्रवरादि===================

वंश – अग्निवंश
कुल – सोढा परमार
गोत्र – वशिष्ठ
प्रवर – वशिष्ठ, अत्रि ,साकृति
वेद – यजुर्वेद
उपवेद – धनुर्वेद
शाखा – वाजसनयि
प्रथम राजधानी – उज्जेन (मालवा)
कुलदेवी – सच्चियाय माता
इष्टदेव – सूर्यदेव महादेव
तलवार – रणतरे
ढाल – हरियण
निशान – केसरी सिंह
ध्वजा – पीला रंग
गढ – आबू
शस्त्र – भाला
गाय – कवली
वृक्ष – कदम्ब,पीपल
नदी – सफरा (क्षिप्रा)
पाघ – पंचरंगी
राजयोगी – भर्तहरी
संत – जाम्भोजी
पक्षी – मयूर
प्रमुख गादी – धार नगरी

परमार वंश मध्यकालीन भारत का एक राजवंश था। परमार गोत्र सुर्यवंशी राजपूतों में आता है। इस राजवंश का अधिकार धार और उज्जयिनी राज्यों तक था। ये ९वीं शताब्दी से १४वीं शताब्दी तक शासन करते रहे।

====परिचय=============================

परमार एक राजवंश का नाम है, जो मध्ययुग के प्रारंभिक काल में महत्वपूर्ण हुआ। चारण कथाओं में इसका उल्लेख राजपूत जाति के एक गोत्र रूप में मिलता है। परमार सिंधुराज के दरबारी कवि पद्मगुप्त परिमल ने अपनी पुस्तक 'नवसाहसांकचरित' में एक कथा का वर्णन किया है। ऋषि वशिष्ठ ने ऋषि विश्वामित्र के विरुद्ध युद्ध में सहायता प्राप्त करने के लिये भाबू पर्वत के अग्निकुंड से एक वीर पुरुष का निर्माण किया जिनके पूर्वज सुर्यवंशी क्षत्रिय थे । इस कारण सुर्यवंशी उज्जयिनी क्षत्रिय भी बुलाय ज। ते है। इस वीर पुरुष का नाम परमार रखा गया, जो इस वंश का संस्थापक हुआ और उसी के नाम पर वंश का नाम पड़ा। परमार के अभिलेखों में बाद को भी इस कहानी का पुनरुल्लेख हुआ है। इससे कुछ लोग यों समझने लगे कि परमारों का मूल निवासस्थान आबू पर्वत पर था, जहाँ से वे पड़ोस के देशों में जा जाकर बस गए। किंतु इस वंश के एक प्राचीन अभिलेख से यह पता चलता है कि परमार दक्षिण के राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी थे।

परमार परिवार की मुख्य शाखा नवीं शताब्दी के प्रारंभिक काल से मालव में धारा को राजधानी बनाकर राज्य करती थी और इसका प्राचीनतम ज्ञात सदस्य उपेंद्र कृष्णराज था। इस वंश के प्रारंभिक शासक दक्षिण के राष्ट्रकूटों के सामंत थे। राष्ट्रकूटों के पतन के बाद सिंपाक द्वितीय के नेतृत्व में यह परिवार स्वतंत्र हो गया। सिपाक द्वितीय का पुत्र वाक्पति मुंज, जो 10वीं शताब्दी के अंतिम चतुर्थांश में हुआ, अपने परिवार की महानता का संस्थापक था। उसने केवल अपनी स्थिति ही सुदृढ़ नहीं की वरन्‌ दक्षिण राजपूताना का भी एक भाग जीत लिया और वहाँ महत्वपूर्ण पदों पर अपने वंश के राजकुमारों को नियुक्त कर दिया। उसका भतीजा भोज, जिसने सन्‌ 5000 से 1055 तक राज्य किया और जो सर्वतोमुखी प्रतिभा का शासक था, मध्युगीन सर्वश्रेष्ठ शासकों में गिना जाता था। भोज ने अपने समय के चौलुभ्य, चंदेल, कालचूरी और चालुक्य इत्यादि सभी शक्तिशाली राज्यों से युद्ध किया। बहुत बड़ी संख्या में विद्वान्‌ इसके दरबार में दयापूर्ण आश्रय पाकर रहते थे। वह स्वयं भी महान्‌ लेखक था और इसने विभिन्न विषयों पर अनेक पुस्तकें लिखी थीं, ऐसा माना जाता है। उसने अपने राज्य के विभिन्न भागों में बड़ी संख्या में मंदिर बनवाए।

भोज की मृत्यु के पश्चात्‌ चोलुक्य कर्ण और कर्णाटों ने मालव को जीत लिया, किंतु भोज के एक संबंधी उदयादित्य ने शत्रुओं को बुरी तरह पराजित करके अपना प्रभुत्व पुन: स्थापित करने में सफलता प्राप्त की। उदयादित्य ने मध्यप्रदेश के उदयपुर नामक स्थान में नीलकंठ शिव के विशाल मंदिर का निर्माण कराया था। उदयादित्य का पुत्र जगद्देव बहुत प्रतिष्ठित सम्राट् था। वह मृत्यु के बहुत काल बाद तक पश्चिमी भारत के लोगों में अपनी गौरवपूर्ण उपलब्धियों के लिय प्रसिद्ध रहा। मालव में परमार वंश के अंत अलाउद्दीन खिलजी द्वारा 1305 ई. में कर दिया गया।

परमार वंश की एक शाखा आबू पर्वत पर चंद्रावती को राजधानी बनाकर, 10वीं शताब्दी के अंत में 13वीं शताब्दी के अंत तक राज्य करती रही। इस वंश की दूसरी शाखा वगद (वर्तमान बाँसवाड़ा) और डूंगरपुर रियासतों में उट्ठतुक बाँसवाड़ा राज्य में वर्त्तमान अर्थुना की राजधानी पर 10वीं शताब्दी के मध्यकाल से 12वीं शताब्दी के मध्यकाल तक शासन करती रही। वंश की दो शाखाएँ और ज्ञात हैं। एक ने जालोर में, दूसरी ने बिनमाल में 10वीं शताब्दी के अंतिम भाग से 12वीं शताब्दी के अंतिम भाग तक राज्य किया।

==========================राजा============================

उपेन्द्र (800 – 818)
वैरीसिंह प्रथम (818 – 843)
सियक प्रथम (843 – 893)
वाकपति (893 – 918)
वैरीसिंह द्वितीय (918 – 948)
सियक द्वितीय (948 – 974)
वाकपतिराज (974 – 995)
सिंधुराज(995 – 1010)
भोज प्रथम (1010 – 1055),
समरांगण सूत्रधार के रचयिताजयसिंह प्रथम (1055 – 1060)
उदयादित्य (1060 – 1087)
लक्ष्मणदेव (1087 – 1097)
नरवर्मन (1097 – 1134)
यशोवर्मन (1134 – 1142)
जयवर्मन प्रथम (1142 – 1160)
विंध्यवर्मन (1160 – 1193)
सुभातवर्मन (1193 – 1210)
अर्जुनवर्मन I (1210 – 1218)
देवपाल (1218 – 1239)
जयतुगीदेव (1239 – 1256)
जयवर्मन द्वितीय (1256 – 1269)
जयसिंह द्वितीय (1269 – 1274)
अर्जुनवर्मन द्वितीय (1274 – 1283)
भोज द्वितीय (1283 – ?)
महालकदेव (? – 1305)
संजीव सिंह परमार (1305 - 1327)

-परमार वंश के दो महान सम्राट----
मित्रो आज हम किसी से भी पुछते है कि राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की प्रतिमाएँ क्यों नहीं हैं?
उनके म्यूजियम उनके स्मारक क्यों नहीं है ?
जब हम कहते हैं राजनेता गलत है पर राजनेताओं के अंध भक्त दुहाई देते हैं कि वो बहुत पहले थे ऐसा कहा जाता है,
लेकिन यह गलत है चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य और महाराजा भोज अगर ना होते तो हमारा आज नहीं होता।
मित्रो राजा विक्रमादित्य और राजा भोज की प्रतिमाएँ बनाई जाए।आज देश में ऐसे नेताओं की प्रतिमा है जो कि उस काबिल भी नहीं है।
और राजा महाराजा की बात करे तो महाराणा प्रताप शिवाजी महाराज भी महानतम यौद्धाओं में हैं,उनकी प्रतिमाएँ है,हम ने उनका तो सम्मान कर दिया पर भारतीय इतिहास के दो स्तंभ राजा विक्रमादित्य और राजा भोज जिनके उपर देश टिका हुआ है हम ने उन्हीं को भुला दिया।

======शूरवीर सम्राट विक्रमादित्य=====

अंग्रेज और वामपंथी इतिहासकार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य को एतिहासिक शासक न मानकर एक मिथक मानते हैं।
जबकि कल्हण की राजतरंगनी,कालिदास,नेपाल की वंशावलिया और अरब लेखक,अलबरूनी उन्हें वास्तविक महापुरुष मानते हैं।विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में वर्णन मिलता है।

उनके समय शको ने देश के बड़े भू भाग पर कब्जा जमा लिया था।विक्रम ने शको को भारत से मार भगाया और अपना राज्य अरब देशो तक फैला दिया था। उनके नाम पर विक्रम सम्वत चलाया गया। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे.विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे।
राजा विक्रम उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक गाथाएं भारतीय साहित्य में भरी पड़ी हैं।
इनके पिता का नाम गन्धर्वसेन था एवं प्रसिद्ध योगी भर्तहरी इनके भाई थे।

विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति का प्रतीक थे,जबकि अंग्रेजों को यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला था और संपूर्ण धरती के लोग उनके नाम से परिचित थे। विक्रमादित्य अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जिनके दरबार में नवरत्न रहते थे। इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था।

यह निर्विवाद सत्य है कि सम्राट विक्रमादित्य भारतीय इतिहास के सर्वश्रेष्ठ शासक थे।

==हिन्दू हृदय सम्राट परमार कुलभूषण मालवा नरेश सम्राट महाराजा भोज ==

महाराजा भोज के जीवन में हिन्दुत्व की तेजस्विता रोम-रोम से प्रकट हुई ,इनके चरित्र और गाथाओं का स्मरण गौरवशाली हिंदुत्व का दर्शन कराता है।
महाराजा भोज इतिहास प्रसिद्ध मुंजराज के भतीजे व सिंधुराज के पुत्र थे । उनका जन्म सन् 980 में महाराजा विक्रमादित्य की नगरी उज्जैनी में हुआ।राजा भोज चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य के वंशज थे।पन्द्रह वर्ष की छोटी आयु में उनका राज्य अभिषेक मालवा के राजसिंहासन पर हुआ।राजा भोज ने ग्यारहवीं शताब्दी में धारानगरी (धार) को ही नही अपितु समस्त मालवा और भारतवर्ष को अपने जन्म और कर्म से गौरवान्वित किया।

महाप्रतापी राजा भोज के पराक्रम के कारण उनके शासन काल में भारत पर साम्राज्य स्थापित करने का दुस्साहस कोई नहीं कर सका.राजा भोज ने भोपाल से 25 किलोमीटर दूर भोजपूर शहर में विश्व के सबसे बडे शिवलिंग का निर्माण कराया जो आज भोजेश्रवर के नाम से प्रसिद्ध है जिसकी उंचाई 22 फीट है । राजा भोज ने छोटे बडे लाखों मंदिर बनवाये , उन्होंने हजारों तालाब बनवाये , सैकडों नगर बसाये,कई दुर्ग बनवाये और अनेकों विद्यालय बनवाये।

राजा भोज ने ही भारत को नई पहचान दिलवाई उन्होंने ही इस देश का नाम हिंदू धर्म के नाम पर हिंदुस्तान रखा।राजा भोज ने कुशल शासक के रुप में जो हिन्दुओं को संगठित कर जो महान कार्य किया उससे राजा भोज के 250 वर्षो के बाद भी मुगल आक्रमणकारियों से हिंदुस्तान की रक्षा होती रही । राजा भोज भारतीय इतिहास के महानायक थे.

राजा भोज भारतीय इतिहास के एकमात्र ऐसे राजा हुए, जो शौर्य एवं पराक्रम के साथ धर्म विज्ञान साहित्य तथा कला के ज्ञाता थे।राजा भोज ने माँ सरस्वती की आराधना व हिन्दू जीवन दर्शन एवं संस्कृत के प्रचार- प्रसार हेतु सन् 1034 में माँ सरस्वती मंदिर भोजशाला का निर्माण करवाया।माँ सरस्वती के अनन्य भक्त राजा भोज को माँ सरस्वती का अनेक बार साक्षातकार हुआ,
माँ सरस्वती की आराधना एवं उनके साधकों की साधना के लिए स्वंय की परिकल्पना एवं वास्तु से विश्व के सर्वश्रेष्ठ मंदिर का निर्माण धार में कराया गया जो आज भोजशाला के नाम से प्रसिद्ध है । उन्होंने भोजपाल (भोपाल) में भारत का सबसे बडा तालाब का निर्माण कराया जो आज भोजताल के नाम से प्रसिद्ध है.

हम इन महानायकों को भुला रहे हैं इसलिये आज हमारा देश फिर से गुलाम बन ने की दिशा में है।जाग जाओ क्षत्रिय राजपूत वीरों और समस्त धर्मनिष्ठ हिन्दूओं मान लो राजा विक्रमादित्य और राजा भोज को।मत भुलाओ इन महानायकों को.…

चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास

=======चन्द्रवंशी तंवर(तोमर)राजपूतो का इतिहास=========

तोमर या तंवर उत्तर-पश्चिम भारत का एक राजपूत वंश है। तोमर राजपूत क्षत्रियो में चन्द्रवंश की एक शाखा है और इन्हें पाण्डु पुत्र अर्जुन का वंशज माना जाता है.इनका गोत्र अत्री एवं व्याघ्रपद अथवा गार्गेय्य होता है। क्षत्रिय वंश भास्कर,पृथ्वीराज रासो,बीकानेर वंशावली में भी यह वंश चन्द्रवंशी लिखा हुआ है,यही नहीं कर्नल जेम्स टॉड जैसे विदेशी इतिहासकार भी तंवर वंश को पांडव वंश ही मानते हैं.
उत्तर मध्य काल में ये वंश बहुत ताकतवर वंश था और उत्तर पश्चिमी भारत के बड़े हिस्से पर इनका शाशन था। देहली जिसका प्राचीन नाम ढिल्लिका था, इस वंश की राजधानी थी और उसकी स्थापना का श्रेय इसी वंश को जाता है।

नामकरण---------
तंवर अथवा तोमर वंश के नामकरण की कई मान्यताएं प्रचलित हैं,कुछ विद्वानों का मानना है कि राजा तुंगपाल के नाम पर तंवर वंश का नाम पड़ा,पर सर्वाधिक उपयुक्त मान्यता ये प्रतीत होती है

इतिहासकार ईश्वर सिंह मडाड की राजपूत वंशावली के पृष्ठ संख्या 228 के अनुसार,,,,,,,
"पांडव वंशी अर्जुन ने नागवंशी क्षत्रियो को अपना दुश्मन बना लिया था,नागवंशी क्षत्रियो ने पांड्वो को मारने का प्रण ले लिया था,पर पांडवो के राजवैध धन्वन्तरी के होते हुए वे पांड्वो का कुछ न बिगाड़ पाए !अतः उन्होंने धन्वन्तरी को मार डाला !इसके बाद अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को मार डाला !परीक्षित के बाद उसका पुत्र जन्मेजय राजा बना !अपने पिता का बदला लेने के लिए जन्मेजय ने नागवंश के नो कुल समाप्त कर दिए !नागवंश को समाप्त होता देख उनके गुरु आस्तिक जो की जत्कारू के पुत्र थे,जन्मेजय के दरबार मैं गए व् सुझाव दिया की किसी वंश को समूल नष्ट नहीं किया जाना चाहिए व सुझाव दिया की इस हेतु आप यज्ञ करे !महाराज जन्मेजय के पुरोहित कवष के पुत्र तुर इस यज्ञ के अध्यक्ष बने !इस यग्य में जन्मेजय के पुत्र,पोत्र अदि दीक्षित हुए !क्योकि इन सभी को तुर ने दीक्षित किया था इस कारण ये पांडव तुर,तोंर या बाद तांवर तंवर या तोमर कहलाने लगे !ऋषि तुर द्वारा इस यज्ञ का वर्णन पुराणों में भी मिलता है.

महाभारत काल के बाद तंवर वंश का वर्णन----------

महाभारत काल के बाद पांडव वंश का वर्णन पहले तो 1000 ईसा पूर्व के ग्रंथो में आता है जब हस्तिनापुर राज्य को युधिष्ठर वंश बताया गया,पर इसके बाद से लेकर बौद्धकाल,मौर्य युग से लेकर गुप्तकाल तक इस वंश के बारे में कोई जानकारी नहीं मिलती,समुद्रगुप्त के शिलालेख से पाता चलता है कि उन्होंने मध्य और पश्चिम भारत की यौधेय और अर्जुनायन क्षत्रियों को अपने अधीन किया था,यौधेय वंश युधिष्ठर का वंश माना जा सकता है और इसके वंशज आज भी चन्द्रवंशी जोहिया राजपूत कहलाते हैं जो अब अधिकतर मुसलमान हो गए हैं,इन्ही के आसपास रहने वाले अर्जुनायन को अर्जुन का वंशज माना जा सकता है और ये उसी क्षेत्रो में पाए जाते थे जहाँ आज भी तंवरावाटी और तंवरघार है,यानि पांडव वंश ही उस समय तक अर्जुनायन के नाम से जाना जाता था और कुछ समय बाद वही वंश अपने पुरोहित ऋषि तुर द्वारा यज्ञ में दीक्षित होने पर तुंवर, तंवर,तूर,या तोमर के नाम से जाना गया.(इतिहासकार महेन्द्र सिंह तंवर खेतासर भी अर्जुनायन को ही तंवर वंश मानते हैं)

तंवर वंश और दिल्ली की स्थापना ------------

ईश्वर का चमत्कार देखिये कि हजारो साल बाद पांडव वंश को पुन इन्द्रप्रस्थ को बसाने का मौका मिला,और ये श्रेय मिला अनंगपाल तोमर प्रथम को.
दिल्ली के तोमर शासको के अधीन दिल्ली के अलावा पंजाब ,हरियाणा,पश्चिमी उत्तर प्रदेश भी था,इनके छोटे राज्य पिहोवा,सूरजकुंड,हांसी,थानेश्वर में होने के भी अभिलेखों में उल्लेख मिलते हैं.इस वंश ने बड़ी वीरता के साथ तुर्कों का सामना किया और कई सदी तक उन्हें अपने क्षेत्र में अतिक्रमण करने नहीं दिया

दिल्ली के तंवर(तोमर) शासक (736-1193 ई)------

1.अनगपाल तोमर प्रथम (736-754 ई)-दिल्ली के संस्थापक राजा थे जिनके अनेक नाम मिलते हैं जैसे बीलनदेव, जाऊल इत्यादि।
2.राजा वासुदेव (754-773)
3.राजा गंगदेव (773-794)
4.राजा पृथ्वीमल (794-814)-बंगाल के राजा धर्म पाल के साथ युद्ध
5.जयदेव (814-834)
6.राजा नरपाल (834-849)
7.राजा उदयपाल (849-875)
8.राजा आपृच्छदेव (875-897)
9.राजा पीपलराजदेव (897-919)
10.राज रघुपाल (919-940)
11.राजा तिल्हणपाल (940-961)
12.राजा गोपाल देव (961-979)-इनके समय साम्भर के राजा सिहराज और लवणखेडा के तोमर सामंत सलवण के मध्य युद्ध हुआ जिसमें सलवण मारा गया तथा उसके पश्चात दिल्ली के राजा गोपाल देव ने सिंहराज पर आक्रमण करके उन्हें युद्ध में मारा
12.सुलक्षणपाल तोमर (979-1005)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया
13.जयपालदेव (1005-1021)-महमूद गजनवी के साथ युद्ध किया, महमूद ने थानेश्वसर ओर मथुरा को लूटा
14.कुमारपाल (1021-1051)-मसूद के साथ युद्ध किया और 1038 में हाँसी के गढ का पतन हुआ, पाच वर्ष बाद कुमारपाल ने हासी, थानेश्वसर के साथ साथ कांगडा भी जीत लिया

16.अनगपाल द्वितीय (1051-1081)-लालकोट का निर्माण करवाया और लोह स्तंभ की स्थापना की, अनंगपाल द्वितीय ने 27 महल और मन्दिर बनवाये थे।दिल्ली सम्राट अनगपाल द्वितीय ने तुर्क इबराहीम को पराजित किया

17.तेजपाल प्रथम(1081-1105)
18.महिपाल(1105-1130)-महिलापुर बसाया और शिव मंदिर का निर्माण करवाया
19.विजयपाल (1130-1151)-मथुरा में केशवदेव का मंदिर

20.मदनपाल(1151-1167)-
मदनपाल अथवा अनंगपाल तृतीय के समय अजमेर के प्रतापी शासक विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव ने दिल्ली राज्य पर अपना अधिकार कर लिया और संधि के कारण मदनपाल को ही दिल्ली का शासक बना रहने दिया,मदनपाल ने बीसलदेव के साथ मिलकर तुर्कों के हमलो के विरुद्ध युद्ध किया और उन्हें मार भगाया,मदलपाल तोमर ने विग्रहराज चौहान उर्फ़ बीसलदेव के शोर्य से प्रभावित होकर उससे अपनी पुत्री देसलदेवी का विवाह किया,पृथ्वीराज रासो में बाद में किसी ने काल्पनिक कहानी जोड़ दी है कि दिल्ली के राजा अनंगपाल ने अपनी दो पुत्रियों की शादी एक कन्नौज के जयचंद के साथ और दूसरी कमला देवी का विवाह पृथ्वीराज चौहान के साथ की,जिससे पृथ्वीराज चौहान का जन्म हुआ,जबकि सबसे प्रमाणिक ग्रन्थ पृथ्वीराज विजय के अनुसार सच्चाई ये है कि पृथ्वीराज चौहान की माता चेदी राज्य की कर्पूरी देवी थी,और पृथ्वीराज चौहान न तो अनंगपाल तोमर का धेवता था न ही जयचंद उसका मौसा था,ये सारी कहानी काल्पनिक थी.

21.पृथ्वीराज तोमर(1167-1189)-अजमेर के राजा सोमेश्वर और पृथ्वीराज चव्हाण इनके समकालीन थे
22.चाहाडपाल/गोविंदराज (1189-1192)-पृथ्वीराज चौहान के साथ मिलकर गोरी के साथ युद्ध किया,तराईन दुसरे युद्ध मे मारा गया।पृथ्वीराज रासो के अनुसार
तराईन के पहले युद्ध में मौहम्मद गौरी और गोविन्दराज तोमर का आमना सामना हुआ था,जिसमे दोनों घायल हुए थे और गौरी भाग रहा था। भागते हुए गौरी को धीरसिंह पुंडीर ने पकडकर बंदी बना लिया था। जिसे उदारता दिखाते हुए पृथ्वीराज चौहान ने छोड़ दिया। हालाँकि गौरी के मुस्लिम इतिहासकार इस घटना को छिपाते हैं।

23.तेजपाल द्वितीय (1192-1193 ई)-दिल्ली का अन्तिम तोमर राजा , जिन्होंने स्वतन्त्र 15 दिन तक शासन किया, और कुतुबुद्दीन ने दिल्ली पर आक्रमण कर हमेशा के लिए दिल्ली पर कब्जा कर लिया।
ग्वालियर,चम्बल,ऐसाह गढ़ी का तोमर वंश--------

दिल्ली छूटने के बाद वीर सिंह तंवर ने चम्बल घाटी के ऐसाह गढ़ी में अपना राज स्थापित किया जो इससे पहले भी अर्जुनायन तंवर वंश के समय से उनके अधिकार में था,बाद में इस वंश ने ग्वालियर पर भी अधिकार कर मध्य भारत में एक बड़े राज्य की स्थापना की,यह शाखा ग्वालियर स्थापना के कारण ग्वेलेरा कहलाती है,माना जाता है कि ग्वालियर का विश्वप्रसिद्ध किला भी तोमर शासको ने बनवाया था.यह क्षेत्र आज भी तंवरघार कहा जाता है और इस क्षेत्र में तोमर राजपूतो के 1400 गाँव कहे जाते हैं.
वीर सिंह के बाद उद्दरण,वीरम,गणपति,डूंगर सिंह,कीर्तिसिंह,कल्याणमल,और राजा मानसिंह हुए,
राजा मानसिंह तोमर बड़े प्रतापी शासक हुए,उनके दिल्ली के सुल्तानों से निरंतर युद्ध हुए,उनकी नो रानियाँ राजपूत थी,पर एक दीनहींन गुज्जर जाति की लडकी मृगनयनी पर मुग्ध होकर उससे भी विवाह कर लिया,जिसे नीची जाति की मानकर रानियों ने महल में स्थान देने से मना कर दिया जिसके कारण मानसिंह ने छोटी जाति की होते हुए भी मृगनयनी गूजरी के लिए अलग से ग्वालियर में गूजरी महल बनवाया.इस गूजरी रानी पर राजपूत राजा मानसिंह इतने आसक्त थे कि गूजरी महल तक जाने के लिए उन्होंने एक सुरंग भी बनवाई थी,जो अभी भी मौजूद है पर इसे अब बंद कर दिया गया है.
मानसिंह के बाद विक्रमादित्य राजा हुए,उन्होंने पानीपत की लड़ाई में अपना बलिदान दिया,उनके बाद रामशाह तोमर राजा हुए,उनका राज्य 1567 ईस्वी में अकबर ने जीत लिया,इसके बाद राजा रामशाह तोमर ने मुगलों से कोई संधि नहीं की और अपने परिवार के साथ महाराणा उदयसिंह मेवाड़ के पास आ गए,हल्दीघाटी के युद्ध में राजा रामशाह तोमर ने अपने पुत्र शालिवाहन तोमर के साथ वीरता का असाधारण प्रदर्शन कर अपने परिवारजनों समेत महान बलिदान दिया,उनके बलिदान को आज भी मेवाड़ राजपरिवार द्वारा आदरपूर्वक याद किया जाता है.

मालवा में रायसेन में भी तंवर राजपूतो का शासन था ,यहाँ के शासक सिलहदी उर्फ़ शिलादित्य तंवर राणा सांगा के दामाद थे और खानवा के युद्ध में राणा सांगा की और से लडे थे,कुछ इतिहासकार इन पर राणा सांगा से धोखे का भी आरोप लगाते हैं ,पर इसके प्रमाण पुष्ट नही हैं,सिल्ह्दी पर गुजरात के बादशाह बहादुर शाह ने 1532 इसवी में हमला किया,इस हमले में सिलहदी तंवर की पत्नी जो राणा सांगा की पुत्री थी उन्होंने 700 राजपूतानियो और अपने दो छोटे बच्चों के साथ जौहर किया और सिल्हदी तंवर अपने भाई के साथ वीरगति को प्राप्त हुए,
बाद में रायसेन को पूरनमल को दे दिया गया,कुछ वर्षो बाद 1543 इसवी में रायसेन के मुल्लाओ की शिकायत पर शेरशाह सूरी ने इसके राज्य पर हमला किया और पूरणमल की रानियों ने जौहर कर लिया और पूरणमल मारे गये इस प्रकार इस राज्य की समाप्ति हुई.

तंवरावाटी और तंवर ठिकाने ---------------
देहली में तोमरो के पतन के बाद तोमर राजपूत विभिन्न दिशाओ में फ़ैल गए। एक शाखा ने उत्तरी राजस्थान के पाटन में जाकर अपना राज स्थापित किया जो की जयपुर राज्य का एक भाग था। ये अब 'तँवरवाटी'(तोरावाटी) कहलाता है और वहाँ तँवरों के ठिकाने हैं। मुख्य ठिकाना पाटण का ही है,एक ठिकाना खेतासर भी है,इनके अलावा पोखरण में भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,बाबा रामदेव तंवर वंश से ही थे जो बहुत बड़े संत माने जाते हैं,आज भी वो पीर के रूप में पूजे जाते हैं.

मेवाड़ के सलुम्बर में भी तंवर राजपूतो के कई ठिकाने हैं जिनमे बोरज तंवरान एक ठिकाना है,
इसके अतिरिक्त हिमाचल प्रदेश में बेजा ठिकाना और कोटि जेलदारी,बीकानेर में दाउदसर ठिकाना,mandholi जागीर,भी तंवर राजपूतो के ठिकाने हैं,धौलपुर की स्थापना भी तंवर राजपूत धोलनदेव ने की थी। 18 वी सदी के आसपास अंग्रेजो ने जाटों को धौलपुर दे दिया। ये जाट गोहद से सिंधिया द्वारा विस्थापित किये गए थे और पूर्व में इनके पूर्वज राजा मानसिंह तोमर की सेवा में थे और उनके द्वारा ही इन्हें गोहद में बसाया गया था।अब भी धौलपुर में कायस्थपाड़ा तंवर राजपूतो का ठिकाना है।

तंवरवंश की शाखाएँ------
तंवर वंश की प्रमुख शाखाएँ रुनेचा,ग्वेलेरा,बेरुआर,बिल्दारिया,खाति,इन्दोरिया,जाटू,जंघहारा,सोमवाल हैं,इसके अतिरिक्त पठानिया वंश भी पांडव वंश ही माना जाता है,इसका प्रसिद्ध राज्य नूरपुर है,इसमें वजीर राम सिंह पठानिया बहुत प्रसिद्ध यौद्धा हुए हैं.जिन्होंने अंग्रेजो को नाको चने चबवा दिए थे.
इन शाखाओं में रूनेचा राजस्थान में,ग्वेलेरा चम्बल क्षेत्र में,बेरुआर यूपी बिहार सीमा पर,बिलदारिया कानपूर उन्नाव के पास,इन्दोरिया मथुरा, बुलन्दशहर,आगरा में मिलते हैं,मेरठ मुजफरनगर के सोमाल वंश भी पांडव वंश माना जाता है,जाटू तंवर राजपूतो की भिवानी हरियाणा में 1440 गाँव की रियासत थी,इस शाखा के तंवर राजपूत हरियाणा में मिलते हैं,जंघारा राजपूत यूपी के अलीगढ,बदायूं,बरेली शाहजहांपुर आदि जिलो में मिलते हैं,ये बहुत वीर यौद्धा माने जाते हैं इन्होने रुहेले पठानों को कभी चैन से नहीं बैठने दिया,और अहिरो को भगाकर अपना राज स्थापित किया...
पूर्वी उत्तर प्रदेश का जनवार राजपूत वंश भी पांडववंशी जन्मेजय का वंशज माना जाता है। इस वंश की बलरामपुर समेत कई बड़ी स्टेट पूर्वी यूपी में हैं।
इनके अतिरिक्त पाकिस्तान में मुस्लिम जंजुआ राजपूत भी पांडव वंशी कहे जाते हैं जंजुआ वंश ही शाही वंश था जिसमे जयपाल,आनंदपाल,जैसे वीर हुए जिन्होंने तुर्क महमूद गजनवी का मुकाबला बड़ी वीरता से किया था,जंजुआ राजपूत बड़े वीर होते हैं और पाकिस्तान की सेना में इनकी बडी संख्या में भर्ती होती है.इसके अलावा वहां का जर्राल वंश भी खुद को पांडव वंशी मानता है,
मराठो में भी एक वंश तंवरवंशी है जो तावरे या तावडे कहलाता है ,महादजी सिंधिया का एक सेनापति फाल्किया खुद को बड़े गर्व से तंवर वंशी मानता था.
तोमर/तंवर राजपूतो की वर्तमान आबादी-------

तोमर राजपूत वंश और इसकी सभी शाखाएँ न सिर्फ भारत बल्कि पाकिस्तान में भी बड़ी संख्या में मिलती है,चम्बल क्षेत्र में ही तोमर राजपूतो के 1400 गाँव हैं,इसके अलावा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पिलखुआ के पास तोमरो के 84 गाँव हैं,भिवानी में 84 गाँव जिनमे बापोड़ा प्रमुख है,,मेरठ में गढ़ रोड पर 12 गाँव जिनमे सिसोली और बढ्ला बड़े गाँव हैं,
कुरुक्षेत्र में 12 गाँव,गढ़मुक्तेश्वर में 42 गाँव हैं जिनमे भदस्याना और भैना प्रसिद्ध हैं. बुलन्दशहर में 24 गाँव,खुर्जा के पास 5 गाँव तोमर राजपूतो के हैं,हरियाणा में मेवात के नूह के पास 24 गाँव हैं जिनमे बिघवाली प्रमुख है.
ये सिर्फ वेस्ट यूपी और हरियाणा का थोडा सा ही विवरण दिया गया है,इनकी जनसँख्या का,अगर इनकी सभी प्रदेशो और पाकिस्तान में हर शाखाओ की संख्या जोड़ दी जाये तो इनके कुल गाँव की संख्या कम से कम 6000 होगी,चौहान राजपूतो के अलावा राजपूतो में शायद ही कोई वंश होगा जिसकी इतनी बड़ी संख्या हो.
जाट, गूजर और अहीर में तोमर राजपूतो से निकले गोत्र-----------

कुछ तोमर राजपूत अवनत होकर या तोमर राजपूतो के दूसरी जाती की स्त्रियों से सम्बन्ध होने से तोमर वंश जाट, गूजर और अहीर जैसी जातियो में भी चला गया।जाटों में कई गोत्र है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है जैसे सहरावत ,राठी ,पिलानिया, नैन, मल्लन,बेनीवाल, लाम्बा,खटगर, खरब, ढंड, भादो, खरवाल, सोखिरा,ठेनुवा,रोनिल,सकन,बेरवाल और नारू। ये लोग पहले तोमर या तंवर उपनाम नहीँ लगाते थे लेकिन इनमे से कई गोत्र अब तोमर या तंवर लगाने लगे है। उत्तर प्रदेश के बड़ौत क्षेत्र के सलखलेन् जाट भी अपने को किसी सलखलेन् का वंशज बताते है जिसे ये अनंगपाल तोमर का धेवता बताते है और इस आधार पर अपने को तोमर बताने लगे है।गूँजरो में भी तोमर राजपूतो के अवशेष मिलते है। खटाना गूजर अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है। ग्वालियर के पास तोंगर गूजर मिलते है जो ग्वालियर के राजा मान सिंह तोमर की गूजरी रानी मृगनयनी के वंशज है जिन्हें गूजरी माँ की औलाद होने के कारण राजपूतों ने स्वीकार नहीँ किया। दक्षिणी दिल्ली में भी तँवर गूजरों के गाँव मिलते है। मुस्लिम शाशनकाल में जब तोमर राजपूत दिल्ली से निष्काषित होकर बाकी जगहों पर राज करने चले गए तो उनमे से कुछ ने गूजर में शादी ब्याह कर मुस्लिम शासकों के अधीन रहना स्वीकार किया।इसके अलावा सहारनपुर में छुटकन गुर्जर भी खुद को तंवर वंश से निकला मानते हैं और करनाल,पानीपत ,सोहना के पास भी कुछ गुज्जर इसी तरह तंवर सरनेम लिखने लगे हैं,हरयाणा के अहिरो में भी दयार गोत्र मिलती है जो अपने को तोमर राजपूतो से निकला हुआ मानते है।दिल्ली में रवा राजपूत समाज में भी तंवर वंश शामिल हो गया है.....

इस प्रकार हम देखते हैं कि चन्द्रवंशी पांडव वंश तोमर/तंवर राजपूतो का इतिहास बहुत शानदार रहा है,वर्तमान में भी तोमर राजपूत राजनीति,सेना,प्रशासन,में अपना दबदबा कायम किये हुए है,पूर्व थलसेनाध्यक्ष जनरल वी के सिंह भिवानी हरियाणा के तंवर राजपूत हैं,और आज केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं,मध्य प्रदेश के नरेंद्र सिंह तोमर भी केंद्र सरकार में मंत्री हैं,प्रसिद्ध एथलीट और बाद में मशहूर बागी पान सिंह तोमर के बारे में सभी जानते ही हैं,स्वतंत्रता सेनानी रामप्रसाद बिस्मिल भी तोमर राजपूत थे,इनके अतिरिक्त सैंकड़ो राजनीतिज्ञ,प्रशासनिक अधिकारी,समाजसेवी,सैन्य अधिकारी,खिलाडी तंवर वंशी राजपूत हैं
तोमर क्षत्रिय राजपूतो के बारे में कहा गया है की

"अर्जुन के सुत सो अभिमन्यु नाम उदार.
तिन्हते उत्तम कुल भये तोमर क्षत्रिय उदार."